फ़ॉलोअर

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

६२.......... 'गाँधी' मर सकता है किन्तु गांधीवाद नहीं

बातें करना अब शेष नहीं,है समर शेष अवशेष नहीं 
है बिगुल फूँकता लाठीवाला 
चलता-डिगता वो मतवाला 
तन पर उजला-सा वस्त्र लिए 
कोई धन-सम्पदा शेष नहीं  
बातें करना अब शेष नहीं,है समर शेष अवशेष नहीं .........'एकलव्य' 
( मेरी आगामी रचना की चंद पंक्तियाँ ) 

'गाँधी' मर सकता है किन्तु गांधीवाद नहीं 
  
'लोकतंत्र' संवाद मंच प्यारे 'बापू' को कोटि-कोटि नमन करता है और  

अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपसब महानुभावों का हार्दिक स्वागत करता है। 

हमारे आज के अतिथि रचनाकार
आदरणीय गोपेश जसवाल जी 
 महा-जन्मोत्सव  

 सुख में, दुःख में,

हानि-लाभ में,

हार-जीत में,

कभी न जो मक्कारी छोड़ें,

शांति, समन्वय, मानवता की,

निष्ठुर हो, नित गर्दन मोड़ें,

सत्ता में हों या विपक्ष में,

शेख चिल्लिया-जुमला फोड़ें,

सब्ज़बाग़ की, सैर करा कर, 

जनता का, हर सपना तोड़ें,

ऐसे देशभक्त, गाँधी का,

डेढ़-शतक, अब मना रहे हैं,

सोए सुख से, वो समाधि में,

उन्हें छेड़ फिर, जगा रहे हैं.



डेढ़-सदी के, समारोह का,

कोई नाथू, आयोजक है,

भस्मासुर के, गुण से शोभित,

कोई, इसका प्रायोजक है.



राजघाट पर, मॉल बनेगा,

आयातित, हर माल बिकेगा,

सुरा सुंदरी, धूम्र-पान का,

नित्य वहाँ, दरबार सजेगा.



सट्टे-जूए की महफ़िल में,

मधुबालाएं जाम भरेंगी,

और मेनका, थिरक-थिरक, कर,

खुलकर, क़त्ले-आम करेंगी.



रसिकों बीच, विरागी जैसे,   

अलग-थलग, तुम पड़ जाओगे,

नज़र उठाई, जहाँ कहीं भी,

वहीं, शर्म से, गड़ जाओगे. 



बिन श्रद्धा के, श्राद्ध तुम्हारा,

करते हैं, उनको करने दो, 

इस विराट, आयोजन से जो,

भरते जेब, उन्हें भरने दो.



गांधी टोपी, बिकतीं फिर से,

गांधी लाठी, चलतीं फिर से,

गाँधी की बकरी की, बलि दे,

बिरयानी, पकतीं हैं फिर से.



गाँधी छोड़ो, राजघाट को,

राज-नगर के, ठाठ-बाट को,

तुम समाधि में लेटे कैसे,

सहते निर्मम, लूटपाट को?



दलित बस्तियों में ही जाकर,

‘वैष्णव जन्तो’, गा सकते हो,

पीर पराई, हरते-हरते,  

महा-मुक्ति तुम, पा सकते हो.



गाँव-गाँव में, अलख जगाओ,

बहुत अधूरे, काम पड़े हैं,

कितने ही, दरिद्र नारायण,

आस लगाए, द्वार खड़े हैं.



भुला चुकी है, दिल्ली तुमको, 

तुम भी उसे, भूल ही जाओ,

जहाँ न्याय हो, समरसता हो,

अपना चरखा, वहीं चलाओ.



सत्य, अहिंसा और प्रेम की,

नगरी कोई, और बसाओ,

सत्य, अहिंसा और प्रेम की,

नगरी कोई, और बसाओ.
                                              -आदरणीय गोपेश जसवाल 


'बापू' तेरे पवित्र चरणों में हम सभी भारतवासियों का कोटि-कोटि नमन। 

उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 


धन्यवाद।



 टीपें
 अब 'लोकतंत्र'  संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !



'एकव्य' 


'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने आज की इस कड़ी को अपने प्यारे 'बापू' को अर्पण करता है। 


आप सभी गणमान्य पाठकजन  पूर्ण विश्वास रखें आपको इस मंच पर  साहित्यसमाज से सरोकार रखने वाली सुन्दर रचनाओं का संगम ही मिलेगा। यही हमारा सदैव प्रयास रहेगा।
  सभी छायाचित्र : साभार  गूगल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों के स्वतंत्र विचारों का ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग स्वागत करता है। आपके विचार अनमोल हैं। धन्यवाद