हिंदी साहित्य के मृत होते इंदु को जीवन देने की इच्छा रखता हूँ ! अपने भारत के लुप्तप्राय विरासत को सहेजने की क्षमता रखता हूँ।
हमारा उद्देश्य 'सार्थक' रचनाओं तक आपको ले जाना व साहित्य
का एक अनुपम संग्रह तैयार करना है। आप सभी की श्रेष्ठ रचनायें आमंत्रित करता हूँ। लोक तंत्र संवाद स्थापित करता हूँ। अपनी रचनायें हमें दिए गये पते पर प्रेषित करें ! आभार "एकलव्य"
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कलुआ आज अपनी 'दी' के यहाँ हिंदी पखवाड़े का विसर्जन करने गया है और कक्का गणपति जी को ! अजब महिमा है हिंदी में 'दी' नया शब्द ! अंग्रेजी में 'दी' प्राचीनतम ! चलो कक्का 'ब्रो' ! तनिक हिंदी कविशाला में थोड़ा अंग्रेजी युक्त हिंदी बांच आयें। फिर वापस लौट हिंदी पखवाड़े पर लम्बी-चौड़ी फेंकें । ....... हा ..हा ....हा। काहे मज़ाक करते हो भाई !
'लोकतंत्र'संवाद मंच
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।
चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........
उद्घोषणा 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
धन्यवाद।
टीपें अब 'लोकतंत्र' संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार' सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे। आज्ञा दें !
कक्का जी आजकल बहुत ज्यादा ही व्यस्त चल रहे हैं। अरे भई ! चुनाव नज़दीक है और रचनाओं का आर्डर भी धूम-धड़ाके से मिल रहा है चलो ! अच्छा ही हुआ बहरूपियों का अनावरण तो हुआ, नहीं तो पता ही नहीं चलता कि इस ब्लॉग जगत के समंदर में कौन सत्य की खोज में है और कौन लाल-पीली,हरी-नीली झंडे वाली पार्टियों की। तो अर्ज़ किया है हम तो बैठे थे सामने ही तेरे तू ही अंधा था सादगी में मेरे वक़्त आ गया अब, काहे को रुकूँ तू चिल्लाता जा ! पगला जो ठहरा वे आएंगे दौड़े-दौड़े, अंधे हैं ! बंदगी में मेरे
-नटखट 'कलुआ' की कलम से
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माज़ी1 का था समंदर, देखा लगा के ग़ोता,
गहराइयों में उसके, ताबूत कुछ पड़े थे,
कहते हैं लोग जिनको, संदूकें अज़मतों2 की,
बेआब जिनके अंदर, रूहानी मोतियाँ थीं.
कितनी नक़ल करेंगे, कितना उधार लेंगे,
सूरत बिगाड़ माँ की, जीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों का, दामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बस, हिंदी का नाम लेंगे.
उद्घोषणा 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
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हिंदी पखवाड़े पर कलुआ और हमारे कक्का जी का विशेष संवाद
१. मन की अतल गहराईयों से निकले विचार और इन विचारों को मथने की मूलभूत आवश्यकता
( कम से कम कुछ दिन तो लगेंगे ही निसंदेह, क्यों कक्का जी ! )
↓↓
२. विषयवस्तु नितांत आवश्यक ! एक मौलिक रचना की विशिष्ट माँग।
( मानता हूँ शब्द पेटेंट नहीं होते और विचार भी ! एक ही विषय पर कई विचार हो सकते हैं। )
उदाहरण
मूल रचना : हो गई है पीर ,पर्वत-सी पिघलनी चाहिए ,इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
हमारा आज का दैनिक सृजन : हो गई है दर्द, हिमालय-सी पिघलनी चाहिए ,इस हिमांचल से कोई यमुना निकलनी चाहिए। ( आदरणीय कक्का जी'कलमकार' )
३. विषय वस्तु : घर में बैठकर कश्मीर के बारे में लिखना और अखबारों में पढ़कर रोहिंग्या से निर्वासित लोगों के विषय में मुग़ालता पालना ,रेडीमेड किसानों के दर्द का एहसास होना ,बेकार में झोपड़पट्टी वाले बच्चों पर दया दिखाना कि ओह कितनी गरीबी है ( भले कभी उन लोगों के बीच बैठकर भोजन किया हो या नहीं परन्तु अखबारों को देखकर उनके दर्द का अनुभव हमारे आज के रचनाकार बख़ूबी लगा सकते हैं और लगाए भी क्यों न ! नासा वालों ने अपने सारे कीमती उपग्रह आज के रचनाकारों को जो दे रक्खा है ! ) उदाहरण मुंशी जी, राहुल सांकृत्यायन, निराला जी, दुष्यंत जी,फणीश्वरनाथ रेणु जी, बाबा नागार्जुन ,महादेवी वर्मा जी न जाने ऐसे ही कितने महान साहित्यकारों ने गली मोहल्ले ,देश-विदेश,झोपड़-पट्टी ,किसानों के खेतों में उनके साथ बैठकर उनकी सूखी रोटी और चटनी का स्वाद चखा और उनके दर्द को समझा तब उनके बारे में अथवा उनके सम्बन्ध में अनेकों रचनाएं कीं जो वर्तमान की दृष्टि से भी सार्थक हैं। क्योंकि इनकी रचनाएं सत्य अनुभव पर आधारित होती थीं और इसीलिए रोज की रोज एक रचना लिखी जाए ऐसा संभव न था ! तर्क : इससे सिद्ध होता है कि रोज या दो दिन पर निश्चय ही लिखी जा रही रचनाएं न ही गंभीर विचारों पर गहन मंथन का परिणाम है और न ही मौलिक सृजन ! यह मात्र शब्दों की हेरा-फेरी है। उद्देश्य : इनका केवल एक मात्र उद्देश्य अपने ब्लॉग विशेष के पाठक संख्या को बढ़ाना और ब्लॉगजगत में निरंतर बने रहना है।
४. आज के कलमकारों का किसी विशेष राजनैतिक पार्टी अथवा किसी विशेष विचार धारा जो गलत है या सही बिना सोचे-समझे उनके पक्ष में अथवा विपक्ष में बड़े-बड़े महाकाव्य लिखना ! उदहारण महान भारत बनाना है ! फला पार्टी को जिताना है। (कक्का जी की कलम से) शिक़वे किये ,गिले किए तेरी रहनुमाई में ऐ ज़ालिम तू है की तेरी आँखों में शर्म का कतरा नहीं है। ( कलुआ की कलम से ) तर्क :ऐसा नहीं है कि कोई भी रचनाकार स्वतंत्र लेखन नहीं चाहता परन्तु उसके चाहने न चाहने से क्या होता है उसकी भी एक मूलभूत विवशता है, वर्तमान में पाठकों की संख्या और उसके ब्लॉग तक पाठकों की पहुँच। जिसके प्रलोभनवश उक्त रचनाकार कुछ तथाकथित सामुदायिक मंचो के संचालकों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है जिसका परिणाम कुछ रचनाकारों का रोज का रोज बिना मंथन और चिंतन के लेखन जारी है इन्हीं की आड़ में कई एजेंडे वो चाहे राजनैतिक हों अथवा सामुदायिक सफल होते नजर आते हैं। परिणाम :नए लेखकों के मौलिक विचारों में कमी,उन्मादी लेखन,किसी जाति-धर्म विशेष को ही साहित्यजगत का दायरा मानना और उनके स्वतंत्र लेखन में बाधा जिसे वह समझने में पूर्णतः अक्षम हो चुका है। जाने-अंजाने ही इस लिखने की होड़ में दूसरे लेखकों की मौलिक रचना अथवा उसकी नकल करने में अपनी पूरी बुद्धिमत्ता और सामर्थ्य एक साथ झोंक रहा है। और यही नहीं इन बिना उद्देश्यपरक रचनाओं की भीड़ में कुछ मौलिक और सार्थक रचना लिखने वाले लेखक दबकर रह गए हैं। इसके दीर्घकालिक परिणाम आपसबको भविष्य में स्वतः ही देखने को मिलेंगे। साहित्य आलोचकों की रिक्तता :क्यों रे कलुआ आजकल बड़ा सुपरमैन बना फिरता है हमेशा उड़ता ही रहेगा ! क्यूँ तुझे जमीन पर नहीं उतरना कभी जो घूम-घूमकर लोगों के पके-पकाए दूध में जोरन डालता फिरता है। यदि तुझे साहित्य जगत में रहना है तो एक उसूल रट ले ''तू मेरी पीठ थपथपा और मैं तेरी" बाकी सब 'मोहनलाल' पर छोड़ दे ! ( कक्का जी की कलम से ) परिणाम : अच्छे और बुद्धिजीवी साहित्यकारों का ब्लॉग जगत से पलायन ( जो कभी एक ब्लॉगर होना सम्मान का विषय समझते थे ) ! जीवित साहित्य मंचों पर ब्लॉग जगत में रोज-रोज लेखन के मौलिक कारणों पर विचार-गोष्ठियां आयोजित होना। कुछ बुद्धिमान लेखकजनों का अतुलनीय सहयोग :ऐसा नहीं है कि हिंदी साहित्य के इस गिरते स्तर के लिए केवल छद्दम रचना करने वाले ही ज़िम्मेदार हैं। इसकी जवाबदेही हमसभी को तय करनी पड़ेगी ! नवांकुर लेखकों को इनसे बचना होगा ! : वाह ! बहुत सुन्दर ! ( बिना पढ़े व रचना का सही मूल्याङ्कन किये बिना टिप्पणी देने वालों से ) यदि पाठक रचना पढ़ता है और कोई टिप्पणी नहीं देता यहाँ तक वह पाठक उस रचनाकार के प्रति न्याय करता है वजाय उस रचनाकार को चने के झाड़ पर चढ़ाने के ! निष्कर्ष : हमारे महान पूर्वज साहित्यकारों ने तो अपना धर्म निभा दिया अपनी अनमोल विरासत हमें सौंपकर ! सोचना हमें है कि हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए क्या मौलिक चिंतन छोड़कर जायेंगे ! तो आइये ! अपनी भाषा व साहित्य के उन्नति के लिए मिल-जुलकर साथ चलें ! याद रक्खें ! हमारा समर्पण साहित्य के उत्थान हेतु होना चाहिए न कि किसी रचनाकार,राजनैतिक अथवा सामुदायिक संगठन के प्रति। प्रस्तुत विचार मेरे मौलिक विचार हैं इससे कोई दूसरा सहमत हो यह आवश्यक नहीं ! आपसभी अपने-अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं। ( प्रार्थी : 'कलुआ' )
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हमारे आज के अतिथि रचनाकार जिनकी इस विशेष रचना के आह्वाहन पर इस वैचारिक मंथन भरे अंक का सृजन संभव हो सका।
आदरणीय "विश्वमोहन'' जी
'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य जगत के ऐसे तमाम सजग व्यक्तित्व को कोटि-कोटि नमन करता है।
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धन्यवाद।
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आज आदरणीय काजल कुमार जी के पोस्ट मितरों के देश में से यह विचार मेरे मन में आया कि सचमुच मितरों के देश में ख़तरे बहुत हैं ! इस विचार मंथन से निकलकर आया 'मितरोफोबिया' ! बाकी का आप स्वयं ही समझ लीजिए मुझे तनिक जल्दी है गाड़ी का पेट्रोल ख़त्म हो गया है और चावल भी कुछ अधपका-सा लग रहा है जरा एल.पी.जी. तो भरवा लूँ कहीं उसके दाम रातों-रात पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर न पसर जाए ! मेरी धर्मपत्नी भी बड़ी गुस्सैल है पता नहीं कब इन बातों को लेकर धरना देना प्रारम्भ कर दे। तो चलिए ! चलते हैं मितरों के देश में थोड़ा खतरा उठाने .......
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