फ़ॉलोअर

सोमवार, 26 मार्च 2018

३८..........साहित्य का कोई धर्म नहीं

साहित्य का कोई धर्म नहीं न ही कोई पूर्व निर्धारित जाति ! बल्कि साहित्य तो स्वयं में ही एक महान धर्म है। और इसका जो ईमानदारी से पालन करे वह श्रेष्ठ रचनाधर्मी परन्तु यह छोटी -सी बात हमारे कक्का जी को कब समझ में आएगी। माना सूरदास ,मीरा और तुलसी सभी ईश्वर की भक्ति में डूबकर अमर साहित्य के इतिहास में अमर हो गए। यह उस काल की आवश्यकता और सृजनशीलता भी थी परन्तु आज कक्का जी का साहित्य हमारे समाज को अलग-अलग खेमे में विभाजित करने का प्रयास करता नजर आता है। आज हमारा साहित्य वर्ग किसकी आवाज बनता जा रहा है ? हम किसी संप्रदाय विशेष को लाभ पहुँचाने हेतु निरंतर साहित्यधर्मिता की अनदेखी करते चले जा रहे हैं। किसी राजनैतिक पार्टी के पक्ष में अपने सृजन को धूमिल करते नजर आ  रहे हैं। बात पिछले दिनों की है हमारे कक्का जी की नई पुस्तक का विमोचन होना था। कक्का जी ने इमर्जेंसी में साहित्य मंडली अपने घर बुलाई। पनीर-पकौड़े और पूरियाँ दे दना -दन छनने लगीं।  सभी इस महफ़िल में विभिन्न तरह के व्यंजनों का स्वाद ले रहे थे। कहीं रूह -अफ़जाह तो कहीं कोल्डड्रिंक्स की बोतलें झमा-झम खुल रहीं थीं। सभी ओर साहित्य के नाम पर पार्टी का आनंद। व्यंजनों के साथ
गहन विचार-विमर्श हुआ। हमारे विधायक जी के पर्सनल सेक्रेटरी भी मौज़ूद थे जिनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई घरेलू रिश्ता नहीं। सभी ने पुस्तक के विमोचन हेतु साहित्य के जाने-माने हस्तियों का नाम गिनवा दिया और हमारे कक्का जी सभी के प्रस्तावित नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते नजर आये। तभी विधायक जी के सेक्रेटरी ने तपाक से मुँह खोला और बोला, अरे कक्का जी ! जब आपको इन्हीं लेखनी के पुजारियों से अपने पुस्तक की पूजा करवानी थी तब काहे हमारा टाइम खोटा किये। कक्का जी विधायक जी के सेक्रेटरी को संभालते हुए,अरे ! नहीं-नहीं 'झुरमुटलाल' हम तो पुस्तक का विमोचन विधायक जी से ही करायेंगे। इन साहित्यकारों से सलाह -मशविरा तो एक औपचारिकता है बस। आखिर हमें भी ज्ञानपीठ कउनो काटता है क्या ! मैंने भी गुस्से में आकर कक्का जी को सबके सामने भला-बुरा सुना डाला और चलता बना। कक्का जी ने मुझे बहुत रोकने की कोशिश की। अरे भई ! कलुआ काहे गुस्सा होता है परन्तु मैंने कक्का जी की एक न सुनी। आशा है ! आपका भी धर्म साहित्य ही होगा नहीं तो कोई दूसरा धर्म देख लीजिये। वैसे भी हमारे देश में धर्मों की कोई कमी नहीं। चलिए ! चलता हूँ मैं, मुझे अपना भी तो धर्म निभाना है।

'लोकतंत्र' संवाद मंच 
किसी भी राजनैतिक संगठन, जाति-धर्म,सम्प्रदाय 
विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं करता। हम साहित्यधर्मिता के पालन हेतु
 कटिबद्ध हैं। अतः इस मंच पर आपसभी खुले विचारों वाले पाठकों व लेखकों का हार्दिक स्वागत है।     

आज के रचनाकार 'स्तम्भ' में हमारी मेहमान 
आदरणीया पुष्पा मेहरा जी की रचना 

                  आँचल  माँ का        

        माँ! तेरे आँचल में
               लहराता ममता का सागर 
               तेरी स्नेहमयी आँखें   
               लगती हैं प्यार की गागर |

               डगमग पाँवों में भरती 
               तू शक्ति अलौकिक,
               कड़वे-खट्टे घूँट सदा तू 
               ख़ुद पीती  ,मिश्री सा  
               माधुर्य घोलकर
                        सदा हृदय से मुझे लगाती |         

               तेरे हृदय श्रोत से झरता   
                           वात्सल्य अमोलिक,               
               घर–आँगन की फुलवारी की 
               तू है बस रजनीगन्धा !!

               तेरे आशीषों तले ही 
               नवांकुर पल्लवित
               पुष्पित होकर हम    
               पाना चाहते सदा 
                              तेरे चरणों की धूल |             

चलिए ! चलते हैं आज के सप्ताहभर की रचनाओं की ओर 

बर्फ़ 
            सुदूर पर्वत पर
            बर्फ़ पिघलेगी
          प्राचीनकाल से बहती
         निर्मल नदिया में बहेगी
          अच्छे दिन की

शर्त ये है कि.


     प्रेम बंटता है अगर
तुममें और हममें 

 ढल रहे हैं 

 मेरे ख्यालों के शब्द,प्रश्न बनके मुझसे ही पूछते हैं, 
ये प्रश्न मेरे जवाब बन,आपके लफ़्ज़ों में पल रहे हैं।  

 नन्ही गौरैया
 हर रोज आती थी
मेरे आँगन में

अब आती नहीं

प्रसंगवश 
जब तुम रोती हो अकेले 
सबसे छिपकर 

 जिद्दी मन... 

 तारों से भी दूर  
मंज़िल ढूँढता है  
यायावर-सा भटकता है,  

 आऊँगी चिड़िया बनकर
गौरैया बिटिया एक समान
दोनों घर- आँगन की शान

यूं मिलती है कविता मुझसे... 

अपनी स्मृतियों को रिवाइज करती हूं तो 
खुद को स्मृति के उस पहले पन्ने के सामने खड़ा 
पाती हूं, जिस पर मरीना ने लिखा था, मुलाकातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं. माथे टकरा जाते हैं. 

   बेटी तो प्यारी है

 बेटी तो प्यारी है
मेरे घर आई
ये मन आभारी है!

कुदरत का वजीफा आता है 
   जो  ज़ख्म   छुपा   कर  रखते  हैं  ईमान  बचाकर  चलते  हैं ।
हिस्से में उन्हीं के ही अक्सर  कुदरत  का  वजीफ़ा आता है ।।

 नीति-कथा 
गुरु जी -'बच्चों तुमको एक प्राचीन 
नीति-कथा सुनाता हूँ. एक राजा के दरबार में तीन चोर पेश किये गए. 
उन तीनों ने राजा के कोषागार में चोरी की थी पर वहां से भागते समय पकडे गए थे. 

   जब अपना कोई छल करता... 
 दिल छलनी-छलनी होता है 
जब अपना कोई छल करता |

  तिश्नगी 

 मेरी धड़कन ने सुनी,जब तेरी धड़कन की सदा,
तब मेरी टूटती साँसों ने 'ज़िंदगी' लिक्खा 

 सुनो ! मन की व्यथा
  
 सुनो  !   मन की  व्यथा कथा -
समझो मन के जज्बात मेरे ,
कभी झाँकों  इस  सूने मन  में -

 रुक   कुछ पल साथ मेरे  !

 विराट 
   पेड़ की डालियों के स्टम्प बनाकर
ईंट-पत्थरों की सीमा-रेखा के बीच

 जरूरी है सबूत होने ना होने का रद्दी 
 आदतें 
बदलती नहीं हैं 
छोटे से 

अंतराल में 

 छाया की माया 
 कल सुबह हफ्तों बाद कुछ कविताएँ लिखीं, 
यदि उन्हें कविता कहा जा सकता है तो, पर वे सहज स्फूर्त थीं. प्रातःकाल
 के दृश्यों को देखकर कुछ द्रवित होकर बहने लगा था. कल सुबह मृणाल ज्योति भी गयी.

 कविता 
 कागज़ पर सियाही से
उकेरी हुई
मन का संवाद

सुरजीत पातर की कविताएं 
मैं रात का आखिरी टापू 
झर रहा हूँ विलाप कर रहा हूँ 

   आज के बच्चे कल के नेता

 चुनाव के मौसम में
हो रही धमाल है

 समय - एक इरेज़र ... ? 
 सांसों के सिवा
मुसलसल कुछ नहीं जिंदगी में
वैसे तिश्नगी भी मुसलसल होती है

जब तक तू नहीं होती

  किताबों की दुनिया
 खुद भी आखिर-कार उन्हीं वादों से बहले 

जिन से सारी दुनिया को बहलाया हमने 

 शेष पहर - - 
 मानों तो सब कुछ है यहाँ, और ग़र न 

मानों तो कुछ भी नहीं इस संसार 

 ज़िंदगी 
 जग में जब सुनिश्चित
केवल जन्म और मृत्यु
क्यों कर देते विस्मृत
आदि और अंत को,

डा. अभिज्ञात जी के ब्लॉग से  
              बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई पर केदारनाथ सिंह जी 
'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य के इस अनमोल सितारे को कोटि-कोटि नमन करता है।   


 टीपें
 अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !


'एकलव्य' 


उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा।  
धन्यवाद।


       सभी छायाचित्र : साभार गूगल 

सोमवार, 19 मार्च 2018

३७...घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ?

वैसे मैं अपने पकौड़े किसी को मुफ़त में नहीं खिलाता। अरे भई ! ये तो मेरा बिजनेस है और वैसे भी घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ? कल कुछ नंग-धडंग व्यक्ति मेरे ठेले के सामने आकर बैठ गए और कहने लगे भई !पैसा नहीं है परन्तु भूख लगी है।  १८० किलोमीटर पैदल चलकर आ रहे हैं जरा अपने पकौड़े खिला दो तो थोड़ा राहत मिलेगी। मैंने तपाक से उत्तर दिया अरे चलो ! आगे बढ़ो। मुफत में यहाँ कुछ भी नहीं मिलता और हाँ थोड़ा यह बताओ तुमलोगों  को फोकट में पकौड़े खिलाने में मुझे क्या फायदा ? तुम्हारा हमारा रिश्ता ही क्या है। वैसे भी बेसन के दाम आजकल आसमान छूने लगे हैं। तभी एक लंगोटी और एक मैला कुर्ता पहने अधेड़ व्यक्ति ने मुझे बड़े आश्चर्य से देखते हुए ,भई ! तुम भी पकौड़े बनाने में बेसन और प्याज का इस्तेमाल करते हो। नहीं तो मैं क्या लंडन से आया हूँ। अरे भई ! बेसन के बिना पकौड़े कहाँ। और वैसे भी तुम लोग हो कौन और यहाँ किसलिए मग्झ -मारी कर रहे हो ? तुम्हें और कोई काम नही। अरे भई ! हम तुम्हरे बेसन बनाने वाले पौधे को उगाने वाले लोग हैं। मैंने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा, आश्चर्य से ! ये कैसे हो सकता है। मैं तो केवल पकौड़े बनाता और बेचता हूँ फिर भी मेरा चारमंजिला मकान है शहर में और तो और अभी -अभी मेरे दो साले बैंक का क़र्ज़ लेकर विदेश यात्रा पर गए हैं संभव है वहीं सेटल भी हो जाएं। और तुम तो पकौड़े  बनाने वाली सामग्री उगाते हो फिर भी तुम्हारी ये हालत ! पैरों में न चप्पल न ही कपड़े और न ही जेब में एक फूटी कौड़ी। नहीं -नहीं ये नही हो सकता। लो भई, ये पकौड़े खा ही लो तब बात करते हैं और हाँ तुम्हें प्यास भी लगी होगी ! आगे सीवर के पास नगर निगम वालों का नल लगा है पानी वहाँ पी लेना। माफ़ करना आजकल पानी की बहुत किल्लत है शहर में। चलिए छोड़िए ! आपका क्या जाता है। आप तो मज़े से मज़ा लीजिए ,मैं भी ले रहा हूँ। 
 'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक 
के 'लेखक' परिचय क्रम में आज साहित्य के 
दो सशक्त 'हस्ताक्षरों ' से आपका परिचय करवाने जा रहा है।   


आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा जी 
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने 'साप्ताहिक सोमवारीय' अंक में आपका हार्दिक स्वागत करता है।   

परिचय :

आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा  जी 

जन्म - तिथि : १० जून, १९४१    

 जन्म- स्थान : मौरावाँ, ज़िला उन्नाव (उ.प्र.)

 शिक्षा : एम .ए. (संस्कृत, समाज शास्त्र), बी.टी.

 प्रकाशित कृतियाँ : अपना राग, अनछुआ आकाश,  रेशा-रेशा , आड़ी-तिरछी रेखाएँ (काव्य - संग्रह ),

 'सागर-मन'  (पुरस्कृत हाइकु काव्य-संग्रह)

 साहित्यिक गतिविधियाँ : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं संगम,आखिरी पन्ना,हिमप्रस्थ,स्वर्ण जयंती  प्रतिबिम्ब,विश्व विधायक,अभिनव इमरोज़,हरिगंधा, वीणा, अविराम साहित्यिकी,गवाह आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,बाल-कविताएँ, क्षणिका, हाइकु, सेदोका, ताँका प्रकाशित ।

 ‘हिंदी हाइकु प्रकृति-काव्यकोश’ , ‘आधी आबादी का आकाश’, ‘सरस्वती   सुमन ‘ में हाइकु प्रकाशित, ‘हिंदी प्रचारिणी सभा (कैनेडा)की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ’हिंदी चेतना’ में हाइकु,साक्षात्कार वा समीक्षा प्रकाशित स. २०१० से प्रकाशित हिंदी हाइकु की वेब पत्रिका  व अन्य पत्रिका   में  हाइकु  काव्य संग्रह  की  समीक्षा प्रकाशित,विभिन संकलनों में दोहे, हाइकु व कविताएँ प्रकाशित |                                 

 अंतर्जाल पर प्रकाशन : ‘हिंदी हाइकु’,  व ‘‘त्रिवेणी ‘ ब्लॉग में  हाइकु, ताँका, सेदोका,चोका,हाइगा प्रकाशित । माननीय आर.डी. काम्बोज जी के ब्लॉग ‘सहज साहित्य’ में कविताएँ  व दोहे प्रकाशित |  

 सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन

 संपर्क : बी-२०१, सूरजमल विहार, दिल्ली-९२

 फ़ोन: ०११-२२१६६५९८ 

 ई-मेल  : pushpa.mehra@gmail.com

आदरणीया 'पुष्पा 'मेहरा जी की स्वरचित किताबों के लिंक




किताब का नाम                 प्रकाशक                                        प्रकाशन-वर्ष


१ . अपना राग           सुरभि प्रकाशन ,११००९२                                   २०१० 

   (फ्रेंचाइज,किताबघर  दरयागंज )  

२. अनछुआ आकाश  अमृत प्रकाशान  , शाहदरा  ,११००३२                २०१०

३. रेशा रेशा             अमृत प्रकाशन , शाहदरा , ११००३२                    २०१३     

४. सागार - मन         अयन प्रकाशन , महरौली , ११००३०                  २०१४ 

५. आड़ी-तिरछी रेखाएँ  अनन्य  प्रकाशन , शाहदरा,   ११००३२          २०१५





 आदरणीय  'पुष्पा ' मेहरा  जी की एक रचना  

 मैं

सोचती हूँ, कौन हूँ !

कभी काँच की शीशी में

इत्र  सुगंध सी बंद रहती  हूँ ,

कभी स्वयं से अनजान

कई रूपों , कई आकारों में

जगह – जगह भटकती  हूँ |

अज्ञानी मैं !

वासनाओं की गठरी लिये

मिट्टी के घरौदे में बैठी

स्वयं से कह रही हूँ

ना मैं फूल हूँ, ना इत्र

ना ही चाँद - सूरज हूँ ,

हाँ !

ओस की छोटी सी बूँद ही

पहचान है मेरी |


आदरणीया  'विभारानी ' श्रीवास्तव 
का हमारे आज के 'लोकतंत्र' संवाद मंच के 
साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक के लेखक परिचय क्रम में हम हार्दिक स्वागत करते हैं।   


परिचय 

आदरणीया  'विभारानी 'श्रीवास्तव 

शिक्षा  : B.Ed और LL.B ( गृहणी  )

स्थान  : पटना /बिहार 

स्वयं से स्वयं का नज़रिया  :  जब तक आर्थिक सहयोग देना अति आवश्यक ना हो दोहरी जिंदगी जीने से बचाव करना चाहिये स्त्री को इसी सोच के कारण दोनों डिग्री रोजगार के उद्देश्यों को पूरा करता हुआ होने के बाद भी नौकरी ना करने का फैसला लिया। 
अकेलापन हद से ज्यादा जब बढ़ गया तो पढ़ने के शौक ने भावाभिव्यक्ति की तरफ राह दिखा दिया... अनेक लोग इस राह पर ऊँगली थामे बढ़ाये...


साहित्यिक जीवन :   2011 में ब्लॉग और फेसबुक की दुनिया से परिचय हुआ 2012 में हाइकु से , 2014 में लघुकथा और 2015 में वर्ण पिरामिड से परिचय हुआ। 
सफर जारी है... सीखने के लिए... ना मंजिल कल तय था... ना कल के लिए कुछ तय है... 

ब्लॉग :http://vranishrivastava1.blogspot.in

चंद पंक्तियाँ आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी की कलम से  


  तिनका हूँ तिनका का वजूद ही कितना
बढ़ती गई राह दिखाई जिसने जितना
समाजिक ऋण चुकता करते मुझे जाना। 

तो चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर 

 किसान के पैरों में छाले 


 सरकारी फ़ाइल में 
रहती है एक रेखा 
जिनके बीच खींची गयी है 
क्या आपने देखा ..?

जीवन की परिभाषा 
 कभी खुशियों की धूप
कभी हकीकत की छाँव   

 खो गया है मेरा चाँद 

 तुझे  मालूम  नहीं 

मुझे  तेरी  फिकर 

  माना पतझड़ का मौसम है. 


घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा

  मुक्तक 
 अपनी धुन में पथिक 
दुर्गम पथ पर चल रहा था 

 बे-वफ़ा 
 मेरा आसमां, तेरे लिए,   
ये मेरी दुआ, तेरे लिए,

  बला 
हर उस तिरस्कार का,
हर उस अवहेलना का, 

विश्व विटप, प्राणी पाखी 

  अ परिचित उर्मी सी आ तू ,
जलधि वक्ष पर चढ़ आई.
ह्रदय गर्त में धंस धंसकर

 कहीं और चलें - - 
 करे मुझ पे भी, सुबह तक 
तो कम अज़ कम,   

मसीहाई हो।

  सुरजीत पातर की कविताएं 
मेरी सूली बनाओगे 
या रबाब 

 "केवल हिन्दुूवर्ष क्यों" 
 नौ दिन के ही लिए क्यों, करते पूजा-जाप।

प्रतिदिन पूजा-पाठ से, कटते संकट-ताप।।

  प्यार में ... 
 इस बार भी
वो खामोशी से गुजर गए करीब से


कभी समंदर तो कभी दरिया बन के
कभी आग तो कभी शोला बन के

 वसंत की दस्तक 
 वसंत ने दस्तक दी है,
हल्की-सी ठण्ड लिए 
धीरे-से हवा चली है.

 अधलिखा अफसाना 
अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,

सुनो परदेसी ! 
   वो जहाँ हम मिलते थे 
खेत कितने होते थे हरे पीले 
और किसान कितने होते थे खुश 

 आज राही मासूम रजा की पुण्‍यतिथि है
 मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है 
जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद 
अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था।

  रिश्तों का सच 
कोशिश करती हूँ
सबको खुश रख सकूँ
कम से कम उनको तो

जो अपने लगते हैं !!!

  सिगरेट 
गोल -गोल घूमते 
लगातार छल्लों पर छल्ला 

 भटकन 

इश्क पाने की चाह में 
भटक गया हूँ। 

  एक दुःख है जो झरा नहीं 
ये झर जाने के दिन हैं इसलिए खूब झर रही हूँ.झर झर 
झर. पूरी तरह से झर जाना चाहती हूँ. सांस सांस झर जाना चाहती हूँ.

लहर 
  हरहराती  शोर मचाती
दूध सा उफान खाती 
ताकत के गुरूर में उन्मुक्त
लहर ……,

  भीतर एक स्वप्न पलता है 
 आहिस्ता से धरो कदम तुम

हौले-हौले से ही डोलो,

 अस्तित्व 
 मेरा अस्तित्व मेरे साथ है 

वो किसी के नाम का मोहताज नहीं

फिर मत कहना, समय रहते ... मैंने कहा नहीं !  
  एक रूहानी लकीर हूँ
यह बताना चाहती हूँ !
बन्द कर दो सारे दरवाज़े

दूरियों को नमन कर के, धीमे धीमे दौड़िये
  साथ कोई दे, न दे , पर धीमे धीमे दौड़िये !
अखंडित विश्वास लेकर धीमे धीमे दौड़िये !

 असली दुःख.... 
तुम दुखी हो !
नहीं लगता मुझे बिल्कुल ऐसा 

अधूरा सच 
मैं सत्य से अवगत हुआ 

काँच की चूड़ियाँ 
घोर रात में भी खनखनाती रही

पीर में भी  मधुर गीत गाती रही ।

सफ़र जो आसान नहीं ... 

बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना  



   प्रेरणापुंज कल्पना को नमन
लाजवाब थी वो 
बेमिसाल थी वो
थी तो हरियाणा की
मग़र समूचे भारत की
मुस्कान थी वो,


******ग़ज़ल
  चल पड़े राह तो मंज़िल पे नज़र रखना बस
इस तरह मील के पत्थर नहीं देखे जाते।

 सभी के लिए 
 दीप जैसे जले रोशनी के लिए

भाव जैसे मुखर जिंदगी के लिए

आदरणीय  ए.आर. रहमान  जी 





  टीपें
 अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !

'एकलव्य' 



उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा।  
धन्यवाद।  

 सभी छायाचित्र : साभार गूगल