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सोमवार, 26 नवंबर 2018

६८............का बताईं कलुआ ! कुलहि गुणगोबर हुई गवा !

 बड़ा दिन हो गया ! चलें तनिक कक्का जी से मिल आए, मन में यह स्नेह भरा विचार लिए हमारे कलुआ का कक्का जी के निवास स्थान पर अचानक ही धावा ! का हो कक्का ! घर में हैं का ? जवाब में कोई प्रतिउत्तर नहीं। कलुआ भी मनमौजी ! धपाक से कक्का जी का किवाड़ खोलकर जा पहुँचा कक्का जी के समीप। कक्का कलुआ को देखते ही सकपका गए और लैपटॉप का टोपी धड़ाक से बंद कर दिया। 
कलुआ - अरे ! कक्का मुझे देखकर तुम इतना उड़नखटोला क्यूँ हो गए ! का बात है ? कउनो विशेष !
कक्का ( माथे से पसीना पौंछते हुए ) - अरे ! नहीं कउनो बात नाही ! हम तो बस उ थोबड़े की किताब के दर्शन करने में जुटे थे ( कलुआ से कुछ छिपाते हुए कहते हैं ) ! परन्तु कक्का जी के माथे की सिकन कुछ और ही बतला रही थी सो कक्का जी ज्यादा देर तक अपना दुःख दबा न सके और फफक-फफककर रोने लगे। कलुआ ने कक्का जी को शांत कराते हुए उनके रोने का कारण पूँछने लगा। 
कक्का- अउर का कही कलुआ ! बीते बरस जब उ परदेसी महोदय राष्ट्रपति के चुनावी अखाड़ा में जीते रहे तो सोचा हमरो दिन फिरने वाले हैं। एकाध अंतरष्ट्रीय कवि संगोष्ठी में तो हमका भी परदेस जाने का बीजा मिल ही जाई ! 
कलु( पिछले दिनों को याद करता हुआ ) - अरे हाँ ! उ तो हमरो याद है। तुमने तो रामप्रसाद चाट वाले की पूरी दुकान ही बुक कर रक्खी थी ! बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना ! अउर तो अउर हमने तो आप से कहा भी था कि अपने लड़के चुनुआ के बर्थडे वाले दिन भी आपने इतना धूमधड़ाका नहीं मचाया होगा जितना उ दूसरे देश के मनई खातिर चारबाग पर चरस बोई रहे हो जबकि उसे जानते भी नहीं। उस समय उ तुम्हरे रिश्तेदार लगते रहे तुमका ! अब का हुईगवा ? 
कक्का ( शर्माते हुए ) - का बताईं कलुआ ! कुलहि गुणगोबर हुई गवा ! उ परदेसी मनई हमका कहीं का नहीं छोड़ा ! 
कलुआ ( उत्सुकतापूर्वक ) - उ कैसे ? इम्मा ओकर कउन टाँग ? प्लीज कक्का एक्सप्लेन इट ! अंग्रेजी में भन्नाते हुए कलुआ ने कक्का की ओर गरमागरम पैने प्रश्न दागता नजर आया। 
कक्का ( एक्सप्लेन करते हुए ) - अरे ! उ मनई ने तो सारा खेला ही बिगाड़ दिस ! हम भारतीयों के विदेश में प्रवेश करने पर कड़े कानून लाने की फिराक़ में है। अउर तो अउर हमरे देश के होनहार,ईमानदार अभियंताओं को मौक़ापरस्त घोषित कर उन्हें भी अपने देश से निकलवाने की जुगाड़ में है।   
कलुआ ( अपना सिर खुजाते हुए ) - तबही हम सोची कि परदेस में काम करन वाले सभई टॉपरेटेड अभियंता कवि काहे बनते जा रहे हैं ! चलो एक बात तो तय हो रक्खा कक्का ! आने वाले दिनों में हमें विरह,वीर-रस ,व्यंग्य ,श्रृंगाररस के साथ-साथ ! रोबोटिक्स-रस , इलेक्ट्रॉनिक्स-रस ,कम्प्यूटर-रस , मंगलयान-रस ,शुक्र-रस ,शनि-रस  अउर तो अउर नासा-रस पर भी एडवांस रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी ! और वैसे भी आज-कल हमरे जमींदार अउर उ नासपीटे खजांची में ठेलमठेल तो मचा ही है ! अउर साहित्य अपने चरम पर ! अउर का ! बाकी सब ठीक है।

                                                                          -  न सुधरी कलुआ की कलम से
    
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**फिज़ूल ग़ज़ल**
 इना झूठ सही, मन  तो गवाही देगा

दिल पे रख हाथ जरा, सच ही सुनाई देगा।

 आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से
 अपराधी हैं यह लोग
सामान्य लोगों को डराने वाले इन अपराधियों को
माकूल सज़ा मिलनी चाहिए

 रूठना (क्षणिका)
 खोइँछा से निकाल   

नईहर छोड़ आई।  

 स्त्री और स्वतंत्रता
 निश्चितता 
असुरक्षा 
अस्थिरता का 
दौर था कभी 
तत्कालीन परिस्थितियोंवश

 रूमानियत
 था दर्द की इन्तहा में  डूबा  ये दिल ,
 चाहत का  मरहम लगाया आपने !


उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
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सोमवार, 19 नवंबर 2018

६७..........''बैरी ख़टमल" ! क्यों कैसी रही !

का रे कलुआ ! इ का सुन रहा हूँ ! तूने कोई प्रतियोगिता आयोजित कराई है ! अउर तो अउर कउनो विशेष टॉपिक पर ! औरो कछु इनाम-सिनाम भी रखा है जीतने वालों के सिर पर। इ सब का माजरा है। अरे कक्का ! काहे इतना बिलबिला रहे हो ! मैंने कौन सा अपराध कर दिया ? इ तो परम्परा यहीं ब्लॉग जगत वालों ने स्टार्ट किया था। स्टार्ट-अप रचना लिखो ! दिए गए टॉपिक पर तब आपको नहीं दिखा औरो जब हमने टॉपिक देकर रचना लिखवाना प्रारम्भ किया तो आपकी आँखें निकली जा रही हैं। अरे ! इसका दूसरा पक्ष तो आपको नजर नहीं आता। तथाकथित बड़े-बड़े धुरंधर साहित्यकार( स्वयं मैं ) भी मेरे इस प्रतियोगिता का हिस्सा बने हैं अउर तो अउर कुछ अंग्रेजी साहित्यकार भी हिंदी में लिखने लगे हैं। अरे कक्का ! मेरी इस प्रतियोगता ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान और यही नही इंग्लैंड के निवासियों को जो कभी भारत में पैदा हुए थे को अपनी सोंधी माटी की याद दिला रहा है ! सारा कारपोरेट जगत मेरे इस योजना और अक्लमंदी की मिसालें दे रहा है। यही नहीं मेरी साईट तो कई कंपनियों का ब्रांड एम्बेस्डर तक बन बैठा है। कल छुटकू पानमसाले वाले ने मुझे पैसों का एक बड़ा ऑफर दिया और परसों हरिया ख़च्चर वाले ने अपने खच्चरों का प्रचार करने हेतु मुझे हायर किया। अबे ! ये सब तो ठीक है परन्तु तूने जो साहित्य का कबाड़ा निकाल दिया वो ! उसका क्या ? अरे कक्का ! तहुँ बड़ा सेंटी हो जाते हो कभी-कभी ! अरे इसमें मेरा क्या क़सूर ! हउ तो फेसबुकवा वाले ऑडियंस से पूँछो ! वही इस प्रतियोगिता के संरक्षक बने बैठे हैं ! उसमें हमरा का दोष ! दोष कुल ब्लॉग जुगतवा वालों का है जिन्होंने ये ऑनडिमांडिंग रचना लिखवाने का दस्तूर चलवाया औरो उ भी अपना-अपना टॉपिक देकर ! 
अच्छा ! तू ये सब छोड़ ! मुझे यह बता तेरी इस प्रतिस्पर्धा का टॉपिक का है। अरे कक्का तुमहो बड़के वाले बौड़म हो ! अरे इसमें कौन सा कमाल है। 
कल रात मोहे नींद नहीं आ रही थी रातभर ठीक से सो न सका। सुबह उठकर जब मैंने खटिया को पीटना शुरु किया तब पता चला कि मेरी खटिया में खटमलों का बसेरा हो गया है। फिर क्या ! मैंने झटाक से टॉपिक डिसाइड कर लिया। ''बैरी ख़टमल" ! क्यों कैसी रही
कलुआ ! दिखने में तो तू बड़ा भोला है पर है बड़ा 'सरपट' ! चल अच्छा है !
 तेरा घर भरता रहे उनकी दुआ से और मेरा क्या है !
गलतियाँ हुईं शब्दों में लगी मात्राओं में,यही तो सच्चे साहित्य का फलसफ़ा है। गुस्ताख़ी माफ़ !

( कहते हैं एक साहित्यकार और आम जनमानस में कुछ बातें उन दोनों को एक-दूसरे से अलग बनाती हैं। एक साहित्यकार जब किसी रचना का सृजन करता है तो उसका आगा-पीछा सोच लेता है जैसे कि उसकी रचना के दूरगामी परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि एक रचनाकार की रचना का प्रभाव इस समाज पर क्या-क्या हो सकता है इन सबकी पूरी नैतिक ज़िम्मेदारी उक्त रचनाकार की होती है। )    

                                                                                - भवदीय कलुआ
''कहते हैं अफ़ीम की खेती करना ग़ुनाह नहीं क्योंकि इस अमृत का उपयोग औषधियों में एक आवश्यक अवयव के रूप में किया जाता रहा है परन्तु यह जहर तब बनता है जब इसकी खेती को व्यवसाय का रूप दिया जाता है।''

हमारे आज के अतिथि रचनाकार 
आदरणीय 'गोपेश' जसवाल जी 

उनकी एक रचना ... 


‘हेलेन ऑफ़ ट्रॉय’ की 
रोमांचक और दुखद गाथा, 
हम सबने बचपन में पढ़ी होगी 
लेकिन आज से 50-60 साल पहले हेलेन ऑफ़ 
बॉलीवुड की गाथा हम सब भारतीयों के दिलो-दिमाग पर छाई रहती थी. 
उसी हेलेन का एक रोमांचक किस्सा हमारे घर-परिवार में अक्सर याद किया जाता है.

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  "बुजुर्ग महिला इसलिए छठ करती 
होगी कि वह सूर्य से गर्भवती हो जाये... ? सनकी को 
सवालों से घेर लेती... लेकिन... समय के साथ मैं बदल गई हूँ..."

 हमने गम नहीं देखा 
मने बहुत गम खाया है 
हर  बात पर पलटवार न करके 
मन को समझाया है |
                                             
 आजकल खामोश ‘मोचीराम’ ‘धूमिल’ का हुआ 
बोलता था तांत की तनकार में हरदम खरा

 जोग चरन दलीत भया बैठा सीस अजोग |
झूठे निजोग करत जो सांचे करत बिजोग || १ ||

 बुझ गए आस के दीपक
खंडहर हुआ उम्मीद का महल


 बरसों से जो खड़ा हुआ था 
बूढ़ा हुआ अशोक 

सूखा रही
अब धूप,
विरह की ।
निगोड़ी रात
अलमस्त!सुखी!

 इश्क़ आसान है या कठिन है बहुत
इल्म हो जाएगा थोड़ी हिम्मत करें

 बाल दिवस   मन करता है
  चलो आज मैं

 कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

 आये  अतिथि आंगन मेरे ,
 महक  उठे   घर - उपवन मेरे !!

 बीत जाए ज़िंदगी का,
ना कहीं मधुमास यूँ ही !!!
तुम रहो ना, पास यूँ ही ।।

  बरसेंगे काले बादल जो ठहर गए
हवा से कह दो अपने नाटक बंद करो

नदी तुम माँ क्यों हो...?
सभ्यता की वाहक क्यों हो...?
आज ज़ार-ज़ार रोती क्यों हो...?   
बात पुराने ज़माने की है 


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