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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

४३ ....निंदा ! क्यूँ न गई मेरे मन से ?

निंदा रस एक ऐसी अचूक औषधि है जिसे पीने के बाद मुर्दा भी चार पाए वाली बाँस की तख़्ती से उठकर आदरणीय  माइकल जैकसन जैसे नर्तक की तरह नृत्य करने लगता है। इसकी महिमा बस पूछो ही मत ! कभी-कभी मैं भी एक वक़्त का ही खाना खाता हूँ और डिनर में इस रस का सेवन करता हूँ यकीन मानिए रात को बड़ी अच्छी नींद आती है। इस रस की महिमा का क्या बखान करूँ ! जब भी हलक से उतरता है फिर क्या वाइन और क्या अँग्रेजी विस्की सभी बेस्वाद जान पड़ते हैं और हाँ इसका फायदा केवल मुझे ही नहीं सुनने वालों को भी उतना ही होता है परन्तु इसकी भी एक शर्त है इसका पान कराने वाले में जितना द्वेष भरा हो उतना ही इसको पान करने वाले महानुभावों में कूट-कूटकर भरा होना अतिआवश्यक है। फिर क्या पूछना ! जब मिल बैठेंगे दो यार हम ,तुम और हमारी प्यारी निंदा। पर कुछ भी कहो साहेब ! निंदा रस में जो मज़ा है वो और कहीं नहीं 
सो मैं निंदा करता हूँ !

 आज की निंदा का आरम्भ करते हैं आदरणीय 'काजल' कुमार जी के अनोखे रचनात्मक सृजन से
बस धंधा ही आता है साहेब    
साप्ताहिक सोमवारीय 
कड़ी का यह अंक प्रत्येक दृष्टि से विशेष है। नये रचनाकारों एवं हिंदी ब्लॉग जगत के उभरते सितारों का प्रथम बार इस मंच पर प्रवेश। 'लोकतंत्र' संवाद मंच इन रचनाकारों का अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में हार्दिक स्वागत व अभिनन्दन करता है और आप सभी से यह आशा करता है कि हिंदी साहित्य समाज के द्वेषरहित उत्थान में आपसभी निरंतर अपना अमूल्य योगदान देते रहेंगे।


तो चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर

  गांव भर की हाथों में लग गईं हथकड़ियां 
 किसी गांव में एक मुंशी रहता था,
नाम था खटेसर लाल। बहुत धूर्त और काइंया
किस्म का आदमी था। जितनी भद्दी शक्ल उतनी ही बुरी अक्ल।


स्वीटू.... 
नौ महीने का ही था
जब हमारे घर का सदस्य बना।

आखिर कब ?
 आखिर क्यों
आखिर कबतक
यूँ बेआबरू

 वक्त और बारात 
 बारात जाने का एक अलग
रोमांच होता है हालांकि उम्र
के साथ उमंग थोड़ी फीकी जरूर पड़ जाती है।

बीती रात ..... 
अब भी जल रहे थे
हम बीती रात

परन्तु ..... 
 दादी से कहानी सुनना और
भइया से झगड़ना था मुझे।
बहन के कपड़े पहन इतराना और

बिजूका .....  
 आज का हमारा समाज, उसकी
मानसिकता दोहरेपन का शिकार है।
एक तरफ स्त्री को देवी का, शक्ति का रूप माना जाता है,

एक नज़म 
 आखिर चुने गये तुम रिश्तोँ की मिनारों मेँ
 और साँस ले रहे हो एहसास की दरारों मेँ

धूप ..... 
 पहनकर धूप की पायल ,
अंगारोंकी तपिश में नाचती सड़कें ,
तन्हाई में बात कर रहे है सूरज से ....

 घुटन की आतिशबाजी फूँक रही है
जब आ चुको तुम आजिज़
रोज़मर्रा के कत्लोआम से

 हम कब सीखेंगे 
 हवाएं
 चुपचाप बहती हैं
 दे जाती हैं - ताज़गी

 मेरी बिटिया 
 मेरी बिटिया भी हो ऐसी
रोज सुबह मेरा रसोईघर में जाना
और मेरी नन्ही बेटियों जैसी गौरैयों का चहचहाना

ज़िन्दगी में चलती है यूं आंधियां
ज़िन्दगी में चलती है यूं आंधियां कभी कभी
उड़ा के ले जाती है ऐसे मर्ज़ियाँ कभी कभी।।

 लुंज-पुंज से लेकर छूट और लूट की दुकान 
 आज एक पुरानी कथा
सुनाती हूँ, शायद पहले भी कभी सुनायी होगी।

 मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर
 शरद, शीत, वर्षा, ऋतु कोई
तू डाली डाली लहका कर
मेरे स्नेह पुष्प तू महका कर।।

 हकीक़त के छाले 
  किसे कहूँ यार अपना,नहीं कोई अब दिलदार अपना
दिल को मेरे खलते हैं अपनों के ये दिखावे बड़े

स्तकला 
 उनके दांतों तले आई उनकी जबान
हड़बड़ा कर कदम पीछे हटा लेती है

 कोई कब तक सुनेगा 
 रो रो के सुनाते रहोगे दास्ताने गम
     भला कोई कब तक सुनेगा

 जाने कितना लिख्खा मैंने....
 जाने कितना लिख्खा मैंने
जाने कितना बांचा मैंने

 सब समझता हूँ 
 नकाबों में छुपे  असली चेहरे हैं  देखे
गिरगिट से पहले  अब रंग बदलता हूँ

शायरी  ......  
 पन्नो की खुशबू,
ये नज़्मों की रवायत,

आज की कुछ विशेष रचनाएं

प्रेम और करुणा के बुद्ध
 ढाई हजार साल पूर्व - ईशा पूर्व की छठी सदी में 
धरा पर महात्मा बुद्ध का अवतरण मानव सभ्यता की सबसे कौतुहलपूर्ण घटना है |

 मौत का एक दिन मुअय्यन है ग़ालिब 
बरात में बैंड की शुरुवात जगराता से
होती है पंखिड़ा रे उडी ने जाजो , फिर तूने मुझे
 बुलाया और फिर असली गाने शू होते है जो काले
कव्वे से लेकर तमाम तरह के भौंडे नृत्य तक जाते है,

  केनेषितं पतति प्रेषितं नः 
 विचारणा की पारंपरिक परिपाटी में हम
यह मानते हैं कि पहले जड़ तत्व का प्रादुर्भाव हुआ,

  न्याय-तंत्र ही माँगे न्याय... 
 लोकतंत्र का एक खम्भा
कहलाती न्याय-व्यवस्था,
न्याय-तंत्र ही माँगे न्याय
    आयी कैसी जटिल अवस्था। 

स्तित्व 
 अनगिनत जन्मों से जुड़ा है
मेरा अस्तित्व तुम्हारे साथ,
कुछ यूँ....

मेरा वजूद 
 ढूँढती आ रही हूँ
बचपन से अपने वजूद को
ज़िन्दगी के हर कोने में झाँक आई

 चश्मे की डंडियाँ 
तुम और मैं
चश्मे की दो डंडियाँ

हर नया दिन 
 एक फूल की तरह
खिलता है,
और कहता है  . .
उठो जागो !

 कोई देख-देख हँसता है 
 आँख मुँदे उसके पहले ही
क्यों ना खुद से नजर मिला लें,
अनदेखे, अनजाने से गढ़
भेद अलख के मोती पा लें !

  "प्रकृति" (हाइकु) 
 ढलती सांझ
घिर आए बादल
  भीगी सी रातें ।

 अमाँ तुम चुप रहो, बस टैक्स भरो ... 
अमाँ तुम चुप रहो,
बस टैक्स भरो
हमें मिनरल वॉटर पीने दो
बड़े प्रोटोकालो में जीने दो


आज के हमारे अतिथि रचनाकार 
आदरणीय  विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' जी और उनकी एक रचना

सन्ध्या का आगमन

 अस्ताचल में 

छिपता सूरज
तट की ओर 
धीरे-धीरे खिसकती नाव
दिन भर की 
थकी हुयी लहरें
शान्त हो 
विश्राम करती हुयी
विलुप्त होता प्रकाश
गहराता अँधेरा
पशु-पक्षी-इंसान का 
घर आने का मन 
बस, ये ही तो है
संध्या का आगमन... 

आज कुछ खास प्रयोगात्मक वीडियों जिसे यह मंच इन लेखकों के प्रोत्साहन हेतु लिंक कर रहा है जिसे आप भी देखें और इनके इस अनोखे प्रयास को आगे बढ़ायें क्योंकि ये सभी रचनाकार सराहना के पात्र हैं। 'लोकतंत्र' संवाद मंच इन सभी प्रयोगधर्मियों का हार्दिक स्वागत करता है।       
आदरणीय अमित जैन 'मौलिक' 

आदरणीया अपर्णा वाजपई 

आदरणीया श्वेता सिन्हा 

आदरणीया नीतू ठाकुर 


  टीपें
 अब 'लोकतंत्र'  संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !


'एकलव्य' 



 उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 
'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 
धन्यवाद।
सभी छायाचित्र : साभार गूगल 

सोमवार, 23 अप्रैल 2018

४२ ........भवदीय "कलुआ"

हमारे कक्का जी की कहानियाँ क्या बताऊँ ! कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेतीं। अभी-अभी लगता है अब बस परन्तु फिर कोई हाईटेंशन ड्रामा ! अब कल ही की बात ले लो कक्का जी ने हमें दावत का निमंत्रण भेजा। हम भी लख़नवी चिकन का कुर्ता और टाइट पाजामा पहनकर कक्का जी के निवास स्थान पर जा धमके। चारों ओर रौशनी की चकाचौंध जिसमें हमारी डिबरी-सी आँखें बौरियानें लगीं। थोड़ी देर के लिए मानों हम सूरदास से हो गए। किसी ने हमारा हाथ पकड़कर गणेश टेंट हाउस से आई नई-नवेली किराए वाली कुर्सी पर बिठाया। आँख खुली तो देखा कक्का जी दांत चियार कर बत्तीसी दिखा रहे थे और कहे जा रहे थे। का रे कलुआ ! का हुआ ? पार्टी अच्छी नहीं लगी का तुमका ! मैंने झेंपते हुए नहीं-नहीं कक्का जी ये बात नहीं है थोड़ा प्रकाश ज्यादा होने की वजह से मेरी आँखें चौंधिया गईं थीं। वैसे आपकी पार्टी बहुत अच्छी है परन्तु ये सब किस लिए आपकी कउनो लॉटरी लगी है का ? कक्का जी 'गदहा' छाप मंजन का  प्रचार करते हुए नहीं रे ! ये बात नहीं है। दरसल मेरी एक कविता और दो कहानियाँ सरकार ने एक विशेष कक्षा के नवीन पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया है। इतना सुनते ही मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा आज कक्का जी का कद मेरी नजर में बहुत ऊपर हो गया था। तभी उन्होंने बताया की ये सब हमारे माननीय मंत्री जी का कमाल है। आप विश्वास करिए ! मुझे उसी समय कक्का जी का वो थोड़ी देर पहले वाला कद उससे पहले वाले कद से भी तुच्छ प्रतीत हो रहा था। वैसे मैं भी आजकल एक कहानी लिख रहा हूँ 'गधों की बारात' ! मंत्री जी की कृपा रहे तो अगले वर्ष नवीन पाठ्यक्रम में इसे भी स्थान मिल जाए। तब तक 'लोकतंत्र' संवाद मंच के माध्यम से थोड़ा इंतज़ार कर लेता हूँ। भवदीय "कलुआ" 
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय  
अंक में आप सभी गणमान्य पाठकों का हार्दिक स्वागत करता है।  

हमारे आज के अतिथि रचनाकार

आदरणीय 'सुशील' कुमार शर्मा जी और उनकी एक रचना 

 मैं और मेरी धरती

पृथ्वी मेरी माँ की तरह
चिपकाए हुए है मुझे
अपने सीने में।
मेरे पिता की तरह
पूरी करती है मेरी
हर कामनाएं।
पत्नी की तरह
मेरे हर सुख का ख्याल
उसके जेहन में उभरता है
बहिन की मानिंद
मेरी खुशी पर सब निछावर करती
भाई की तरह
मेरे हर कष्ट को खुद पर झेलती
बेटी की तरह
मेरे घर को खुशबुओं से
करती सरोबोर
पृथ्वी एक नारी की प्रतिकृति
झेलती हर कष्ट
अपनों के दिये हुए दंश
लुटती है अपनों से
उसके बाद भी उफ नही
रुक जाओ दानवों
मत लूटो इस धरा को
जो देती है तुमको
अपने अस्तित्व को जीवनदान
पर्यावरण को सुधारो।
नदियों को मत मारो
जंगलों पर आरी
खुद की गर्दन पर कटारी
पॉलिथीन का जंगल
छीन लेगा तुम्हारा मंगल
वाहनों की मीथेन गैस
छीन लेगी तुम्हारी जिंदगी की रेस
अरे ओ मनुज स्वार्थी
प्रकृति और पृथ्वी से तू जिंदा है
क्यों न तूं अपने कर्मों से शर्मिंदा है
भौतिकता का कर विकास
मत कर खुद का विनाश।
कर इस धरती को सजीव
 बन पृथ्वी का शिरोमणि जीव।
(पृथ्वी दिवस पर विशेष)

आदरणीया 'अनीता' लागुरी जी एवं उनकी रचना 

  ख़ामोश मौतें!! 

 बस्तियां- दर- बस्तियां 
      हुईं  ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं  में कोन-सा
      ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
      नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
   शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
     घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
         तुम्हारी 
ये कैसा जुनून है 
        तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म  लिख गया..!!!
तुम भी इंसां  हो
मैं भी इंसां  हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों  प्यारी....??
   कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
  कतारों में 
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र  को...!!
वो ऊपर बैठा 
वो भी यही सोच रहा होगा
कब इंसानो को मैंने 
राक्षस बना दिया..!!!


तो चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर  

 डेरा डाले पलकों में
 पल-पल तुम्हारी,
गिनूँ थरथराहट
 पुतलियों की,

  मैं नारी
खोज रही अस्तित्व को
हर उम्र , हर पड़ाव को लांघते
बाहर के अंधेरे से बचते
तो गुम होती

 वर्षों से दीवार पर टंगी 
तस्वीर से 
धूल साफ़ की 
आँखों में 
करुणा की कसक 

 ये रोशनी 
ये सवेरा 
और अंधेरे में 
चमकता हुआ 
ये तुम्हारा चेहरा।

शीतनिशा में हर पात झरा है
पीर का बिरवा भी  हुआ हरा है ।
मन-आँगन में  घना अँधेरा है  

 सबको देती है इतनी शक्ति
कि वह अपनी स्थिति का सामना कर सके
रेगिस्तान में देती है 
ताप सहने की शक्ति 


एक दिन बीत जाती है 
सारी बातें 

समय की शिला पर   
जाने किस घड़ी लिखी   
जीवन की इबारत मैंने   
ताउम्र मैं व्याकुल रही   


गाली-गलौच में सभी बेबाक हो गए 
धोये जो राजनीति से तो पाक हो गए। 

 एक बड़ा मिट्टी या सीमेंट का आँगन
लाल पोचाड़े से रंगा घर
बारामदे का पाया

 पढ़ती हूँ उनकी चुप जो रहते हैं आस पास 
दीखते हैं अक्सर हँसते हुए सहज से 
कभी-कभार चुप हो जाते हैं

 सोये सपनों को जगाने की ज़रूरत क्या है 
बे सबब अश्क बहाने की ज़रूरत क्या है 

दूर दूर तक भीड़ ही भीड़ है ,
पर कोई कुछ बोल नही रहा .

   मेरी नानी चाहती थी 
कि कुछ आदतें  
उनसे उनकी बेटी को मिले, 

 जून अगले हफ्ते तमिलनाडु जा 
रहे हैं और तीसरे सप्ताह में उन्हें कोलकाता 
जाना है, असमिया सखी के पुत्र की शादी में. अभी-अभी 
उससे फोन पर बात की, विवाह को लेकर कुछ चिंतित थी.

 एक श्रोता दूसरे श्रोताको धकाकर आगे बढ़ रहा था।
दूसरा फोटो के लिए तीसरे के काँधे पर ही चढ़ रहा था।

भीड़ अध्यक्ष के अगल बगल जब तक एक कतार लगाती ,
तब तक पहली कतार के आगे एक और कतार लग जाती।

 अक्षर अक्षर  घायल है
 जल रही है मेरी कविता
 निः शब्द पढ़े शब्दों से

 जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,

 अपना घर कोई बनाना हो 
या कहीं दूर घूमने जाना हो 
कोई दुःख की बात हो 
या कोई जश्न मनाना हो 


नई मंगन तारों के संग 


  टीपें
 अब 'लोकतंत्र'  संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !


'एकलव्य' 

 उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा।  
धन्यवाद।
सभी छायाचित्र : साभार गूगल