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सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

६६............ कलुआ समझे या नाहीं का फर्क परता है।

हते हैं शब्दों का प्रयोग और उनकी सार्थकता साहित्य में तभी तक है जब तक उसकी पहुँच आमजन तक ! किन्तु जब हम इन सरल शब्दों को उनके कठिनतम रूप में आमजन तक ले जाते हैं तो एक स्थिति ऐसी भी आती है कि जिस लोकप्रिय साहित्य को एक साधारण व्यक्ति अपने जीवन से जोड़कर उसमें रुचि रखता था अब वही व्यक्ति इन कठिनतम शब्दों से लबरेज़ साहित्य को सामंती विचारधारा का सूचक मान बैठता है ! इसका दूसरा पक्ष हमारे डिग्री धारक अपने ज्ञान को कहाँ उड़ेलें यह तो बड़ी समस्या है ! बड़ी-बड़ी उपाधियाँ और बड़ा संकट ! अब रात्रि को रात कैसे कहें और कह भी दें तो कहीं दिन न हो जाए और ग्रामीणों को गाँव वाला क्यूँ कहें ! कहीं वो शहरवाला न बन बैठे ! अब हमारे स्वामी शेक्सपीयर को ही ले लीजिये ज़नाब बेना डोलाते और रंगमंच पर पर्दा उठाते,पर्दा गिराते और शिक्षा के नाम पर कोई डिग्री नहीं ! भाषा भी इनकी कोई उच्चकोटि की नहीं ! अरे ! लन्दन कहाँ जाते हैं अपने कबीर जी को ही ले लीजिए न कोई स्कूल और न ही कोई कॉलेज सभई  ढाक के तीन पात ! फिर क्या था सभी की लॉटरी लगी और सभी हीरो ! ये तो किस्मत थी और क्या ! नहीं तो हम इतने पढ़े-लिखे मनई ! अरे ! हमने तो लिटरेचर में एम.ए.बी.ए.एक्स वाई.जेड. किया है और शब्दों के जादूगर भी हैं ! और मेरा जादू चले न ऐसा कैसे हो सकता है। और कठिन शब्दों को कलुआ समझे या नाहीं का फर्क परता है। और समझ करके करेगा भी क्या ? वो अलग बात है कि हमरे शोध का विषय इहे कबीर अउर शेक्सपीअर भईया रहिन !  ( पगला कलुआ

हमारे आज के अतिथि रचनाकार

आदरणीया मीना शर्मा जी  

उनकी एक रचना 


 चूरा चूरा चाँद हो गया,
टुकड़े टुकड़े सारे तारे !
मेरे पास यही दोनों थे,
अब तुमको मैं क्या दूँ ? बोलो !!!

निर्वासित शापित शब्दों में,
इतनी शक्ति नहीं बची है,
अब भी तुमसे प्यार मुझे,
ये किन शब्दों में बोलूँ ? बोलो !!!

बेनामी रिश्ते की पीड़ा
पंछी और पेड़ से पूछो,
दुनिया के रस्मो रिवाज में
इस रिश्ते को भूलूँ ? बोलो !!!

इस दिल ने क्यों मान लिया हक
किसी गैर की धड़कन पर,
कैद कहीं इस दिल को कर दूँ
या अधिकार सँजो लूँ ? बोलो !!!

अगर कहीं तुम मिल जाओ तो
कह दूँ जो मुझको कहना है 
या फिर उस वादे की खातिर
अपने नयन भिगो लूँ ? बोलो !!!
           
                                       - आदरणीया मीना शर्मा 


 'लोकतंत्र' संवाद मंच 

अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।

    चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........

 कमलेश श्रीवास्तव की ग़ज़लें

 मज़हबी मेल लाज़िम है इस मुल्क़ में ।

बात बिगड़ी अगर तो बनेगी नहीं ।

 तेरी याद आई
 जानती हो क्यों अम्मा ?
वो इसलिए कि अब इंसान की

फितरत बदल गयी !

 फ़िल्म - 'बधाई हो'

 प्राचीन काल में हर ऐरी-गैरी, नत्थू-खैरी फ़िल्म देखना मेरा फ़र्ज़ होता था. इसका प्रमाण यह है कि मैंने टीवी-विहीन युग में, सिनेमा हॉल्स में जाकर, अपने पैसे और अपना समय बर्बाद कर के, अभिनय सम्राट जीतेंद्र तक की क़रीब चार दर्जन फ़िल्में देख डाली थीं. और तो और, अपनी संवाद-अदायगी के लिए विख्यात – ‘मेरे करन-अर्जुन आएँगे’ उन दिनों मेरी पसंदीदा हीरोइन हुआ करती थीं.  

जंगल में आग 
 सरकार से हवाई बौछार का 

विनम्र आग्रह किया 

पर्यावरणप्रेमी आगे आये 


हरियाली के झंडे बैनर लिये।

उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 
धन्यवाद।

 टीपें
 अब 'लोकतंत्र'  संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

आज्ञा दें  !



'एकव्य' 

आप सभी गणमान्य पाठकजन  पूर्ण विश्वास रखें आपको इस मंच पर  साहित्यसमाज से सरोकार रखने वाली सुन्दर रचनाओं का संगम ही मिलेगा। यही हमारा सदैव प्रयास रहेगा।
  सभी छायाचित्र : साभार  गूगल

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

६५............जीवित होने का प्रमाण !

ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती और जीवित होने का प्रमाण हमारा निरंतर ही कुछ न कुछ सीखने की जिज्ञासा रखना ! इसी क्रम में हम आज आपको एक ऐसे ही रचनाकार और उनकी रचना से आपका साक्षात्कार कराते हैं जो स्वयं को गुरु कम शिष्य के रूप में ज्यादा प्रस्तुत करते हैं। 
हमारे आज के अतिथि रचनाकार

आदरणीय रवींद्र सिंह यादव जी 

उनकी एक प्रयोगवादी रचना 

रेल-हादसा (वर्ण पिरामिड)

 1. 

था 

क्रूर 

हादसा 

दशहरा 

अमृतसर 

रेल-रावण को 

दोष मढ़ते हम। 


2. 

ये

नेता  

मौत में 

तलाशते 

अपनी जीत 

सम्वेदना लुप्त 

दोषारोपण ज़ारी। 


3. 

वे 

लेते 

वेतन 

सरकारी 

हैं अधिकारी 

ओढ़ते लाचारी 

क्यों जनता बेचारी? 



4. 

थी 

एक 

जिज्ञासा 

रावण को 

देखें जलता 

विडियो बनाते 

क्षत-विक्षत हुए। 


5. 

है 

छाया 

मातम 

शहर में 

चीख़-पुकार 

 है मौन मंज़र 

हुए यतीम बच्चे।  

                                                             -रवीन्द्र सिंह यादव 
   'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।

   चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........



 अध-लिखे कागज़ किताबों में दबे ही रह गए
कुछ अधूरे ख़त कहानी बोलते ही रह गए


ठती गिरती साँसों में
खयालों में अहसासों में
पलकर पल पल पलकों में
भाव गूँथ गुंफ अलकों में



‘अकबर इलाहाबादी’, ओह माफ़ कीजिएगा ! ‘अकबर प्रयागराजी’ ने आम आदमी की जीवन भर की उपलब्धियों पर क्या ख़ूब कहा है -
‘हम क्या कहें, अहबाब वो, कारे नुमाया, कर गए,
बी. ए. किया, नौकर हुए, पेंशन मिली, और मर गए.’


उद्घोषणा 
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व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

६४...........का रे कलुआ ! चुनाव आ गवा रे !

 का रे कलुआ ! चुनाव आ गवा रे ! अब तो खूबहू लिखेंगे। 
'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  

हमारी आज की अतिथि रचनाकार 
आदरणीया 'रेणु' बाला जी 


 बुद्ध की यशोधरा

बुद्ध की प्रथम और अंतिम नारी-
 जिसने  उसके मन में झाँका,
जागी थी जैसे तू कपलायिनी -- 
ऐसे  कोई नहीं जागा !!

ति प्रिया से बनी  पति त्राज्या-- 
 सहा अकल्पनीय दुःख पगली,
नभ से आ  गिरी धरा पे-
 नियति तेरी ऐसी बदली ;
 वैभव  से बुद्ध ने किया पलायन
तुमने वैभव में सुख त्यागा |

 बुद्ध को सम्पूर्ण करने वाली -
  एक नारी बस तुम थी ,
 थे  श्रेष्ठ बुद्ध भले जग में -
 बुद्ध पर  भारी बस  तुम  थी ;
सिद्धार्थ  बन गये बुद्ध भले  -
 ना  तोडा  तुमने  प्रीत का धागा !!

तिहास झुका तेरे आगे --
 देख उजला   मन का दर्पण
  एक मात्र पूंजी पुत्र जब
 किया  बोधिसत्व को अर्पण ;
आत्म गर्वा माँ बन तुमने -
अधिकार अपने पुत्र का मांगा !!

बुद्ध का अंतस भी भीगा  होगा -- 
देख तुम्हारा  सूना तन - मन
चिर विरहणी, अनंत मन -जोगन -- 
विरह अग्न में तप हुई कुंदन ! !
 बुद्ध की करुणा में  सराबोर हो 
तू बनी अनंत महाभागा !!!!!!!!!!!!!!!
                                                                                  -'रेणु' बाला जी
                                                                                              -आपको हार्दिक बधाई

चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........

गज़ल 

 मैं तो दरिया हूँ समंदर तलाश करता हूँ

कोई हसीन मुक़द्दर तलाश करता हूँ।

माँ...

 कुछ कहिये कि आप
 

कि अजी आपको,मुस्कुराना ही होगा ,
इस गम का सबब,तो बताना ही होगा ,
क्या खता कोई हुई है मुझ दीवाने से ?
या फिर कोई शिकायत है ज़माने से ?

 ओ रे बदरा   
इतना क्यों बरसे   
सब डरते   
अन्न-पानी दूभर   
मन रोए जीभर।   


 पहुंचे वहां सब अपने, आखरी रस्मों पर उलझे पड़े थे
कोई अपना, अर्थी पर आंसू बहा रहा था

 कोई अर्थी को, घी लकड़ी से सज़ा रहा था

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सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

६३........''मैं भी गाँधी हूँ" !

 अब क्या तेरा और क्या मेरा, सबकुछ तेरा ही था ! गाँधी से मतभेद रखने वाले और उनके मत निकट रखने वाले सभी गणमान्य ''मैं भी गाँधी हूँ" ! चुनाव सिर पर है और नीली-पीली झण्डियाँ गली-मोहल्लों की शान बनती नजर आ रही हैं। पार्टी विशेष के नारे ज़ुबाँ पर किन्तु देश का नारा कहीं गुम-सा है। ब्लॉग जगत में पार्टियों के नुमाइंदे बढ़चढ़कर अपनी पार्टियों द्वारा किये गए उचित-अनुचित कार्यों की दुहाई दे रहे हैं और कुछ तथाकथित धर्म का ध्वज बुलंद करने में त्यौहारों का सहारा ले रहे हैं। कुछ की जिह्वा न चाहते हुए भी बापू का नाम लेने को मजबूर है और कुछ उन्हें यों ही श्रद्धासुमन अर्पित किये जा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों ने गली-मोहल्लों में हलवाई की दुकान चुनाव प्रचारकों हेतु आरक्षित करना प्रारम्भ कर दिया है आपको अब पूरी-सब्जी खरीदने की आवश्यकता नही है बस ज़ुबां पर उनके कागज़ी कार्यों का ब्यौरा रखिए और देशभक्ति की भावना घर के किसी कोने में रक्खे पुराने संदूक में जिस पर लिखा हो "देशप्रेम सो रहा है और व्यक्तिवाद प्रबल'' !  धर्म को जागृत करिए ! पूजा स्थल पुनः बनेंगे ! जिन्हें यह नारा पसंद न आए वे निसंदेह देश गमन करें ! क्योंकि यह देश केवल मेरा है और मेरे ही दादा-परदादा ने अपने प्राणों की आहुति दी है और सभी अन्य धर्म और जाति विशेष के लोग उस समय जब मेरे पूज्य दादा अंग्रेजों द्वारा चौराहे पर धागे से लटकाए जा रहे थे तब समोसा-चटनी चट करने में तल्लीन थे अतः मौलिक रूप से यह देश मेरा है ! अरे कक्का ! क्या कह रहे हो ? आखिर कब तक यह देश तुम्हारा ही रहेगा कोई एक्सपाइरी डेट है क्या ? हाँ रे ! कलुआ, बस यह चुनाव ख़त्म होने तक। और ये लगा सिक्सर ! क्या करूँ ,आदत से मजबूर हूँ ! 
(  लेखनी : सटका हुआ कलुआ )

रचनाओं की भीड़ इकठ्ठा करना हमारा लक्ष्य नहीं ! लक्ष्य केवल सार्थक साहित्य दर्शन ! 
           
'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  
हमारी आज की अतिथि रचनाकार आदरणीया साधना वैद जी एवं अपर्णा वाजपई जी 

आदरणीया साधना वैद जी

 सुना है
तुमने किसी बुत को छूकर
उसमें प्राण डाल दिये
ठीक वैसे ही जैसे सदियों पहले
राम ने अहिल्या को छूकर
उसे जीवित कर दिया था !
सुना है तुम जादूगर हो
तुम्हें फ़िज़ा में तैरती
सुगबुगाहटों की भाषा को
पढ़ना भी आता है !
यहाँ की सुगबुगाहटों में भी
कुछ खामोश अनसुने गीत हैं
यहाँ के सर्द सफ़ेद इन
संगमरमरी बुतों में भी
कुछ धड़कने दफ़न हैं
कुछ सिसकियाँ दबी हैं
कुछ रुंधे स्वर छैनी हथौड़ी की
चोट से घायल हो
खामोश पड़े हैं
तुम्हें तो खामोशियों को
पढ़ने का हुनर भी आता है ना
तो कर दो ना साकार
इन आँखों के भी सपने,
दे दो ना आवाज़
इन पथरीले होंठों पर मचलते
हुए खामोश नगमों को,
छू लो न आकर इन बुतों को
अपने पारस स्पर्श से
कि बेहद कलात्मकता से तराशे हुए
इन संगमरमरी जिस्मों को भी
चंद साँसें मिल जायें,
कि इनकी यह बेजान मुस्कान
सजीव हो जाये,
कि इनकी पथराई हुई आँखों में
नव रस का सोता फूट पड़े !
सदियों से प्रतीक्षा है इन्हें
कि कोई मसीहा आयेगा
और इन्हें छूकर इनमें
प्राणों का संचरण कर जाएगा !
यूँ तो हर रोज़ हज़ारों आते हैं
लेकिन लेकिन ये बुत ज़माने से 
ऐसे ही खड़े हैं 
अपनी आँखों में वीरानी लिए हुए 
और अपने अधरों पर यह 
पथरीली मुस्कान ओढ़े हुए 
इनकी आँखों में
किसका ख्वाब है
किसकी प्रतीक्षा है

कौन जाने !

आदरणीया "अपर्णा" वाजपई जी 


उस दिन कुछ धागे
बस यूं ही लपेट दिए बरगद में,
और जोड़ने लगी उम्र का हिसाब
उंगलियों पर पड़े निशान,
सच ही बोलते हैं,
एक पत्ता गिरा,
कह गया सच,
धागों से उम्र न बढ़ती है,
न घटती है,
उतर ही जाता है उम्र का उबाल एक दिन,
जमीन बुला लेती है अंततः
बैठाती है गोद,
थपकियों में आती है मौत की नींद,
छूट जाते हैं चंद निशान
धागों की शक्ल में.....
बरगद हरियाता है,
हर पतझड़ दे बाद,
      जीवन भी...... 
                                                -अपर्णा वाजपई 

   चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........

लेखिका सुश्री मालती मिश्रा 'अन्तर्ध्वनि' काव्य संग्रह 
के उपरान्त 13 कहानियों का संग्रह  'इंतज़ार' लेकर कथा की दुनियाँ में पदार्पण कर रही हैं।


 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शायरों ने आम ज़िन्दगी की 
दुश्वारियों को अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया और उसे पूरी संज़ीदगी से सामने रखा। 

प्रीति साँची सोइ कहो होइब मीन समान | 
पिय पानि बिलगाइब जूँ छूटे तलफत प्रान || २  || 

 यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

 ब्रह्माण्ड की रचना में 
है सत्त्व ,रज और तम 
गुणों की प्रधानता, 
सृष्टि के समस्त रंगों को 
सोख  लेने की 
 है काले रंग में क्षमता। 


 द्वापर युग में, प्रीति-भोज हेतु, श्री कृष्ण का, सुदामा को निमंत्रण


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सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

६२.......... 'गाँधी' मर सकता है किन्तु गांधीवाद नहीं

बातें करना अब शेष नहीं,है समर शेष अवशेष नहीं 
है बिगुल फूँकता लाठीवाला 
चलता-डिगता वो मतवाला 
तन पर उजला-सा वस्त्र लिए 
कोई धन-सम्पदा शेष नहीं  
बातें करना अब शेष नहीं,है समर शेष अवशेष नहीं .........'एकलव्य' 
( मेरी आगामी रचना की चंद पंक्तियाँ ) 

'गाँधी' मर सकता है किन्तु गांधीवाद नहीं 
  
'लोकतंत्र' संवाद मंच प्यारे 'बापू' को कोटि-कोटि नमन करता है और  

अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपसब महानुभावों का हार्दिक स्वागत करता है। 

हमारे आज के अतिथि रचनाकार
आदरणीय गोपेश जसवाल जी 
 महा-जन्मोत्सव  

 सुख में, दुःख में,

हानि-लाभ में,

हार-जीत में,

कभी न जो मक्कारी छोड़ें,

शांति, समन्वय, मानवता की,

निष्ठुर हो, नित गर्दन मोड़ें,

सत्ता में हों या विपक्ष में,

शेख चिल्लिया-जुमला फोड़ें,

सब्ज़बाग़ की, सैर करा कर, 

जनता का, हर सपना तोड़ें,

ऐसे देशभक्त, गाँधी का,

डेढ़-शतक, अब मना रहे हैं,

सोए सुख से, वो समाधि में,

उन्हें छेड़ फिर, जगा रहे हैं.



डेढ़-सदी के, समारोह का,

कोई नाथू, आयोजक है,

भस्मासुर के, गुण से शोभित,

कोई, इसका प्रायोजक है.



राजघाट पर, मॉल बनेगा,

आयातित, हर माल बिकेगा,

सुरा सुंदरी, धूम्र-पान का,

नित्य वहाँ, दरबार सजेगा.



सट्टे-जूए की महफ़िल में,

मधुबालाएं जाम भरेंगी,

और मेनका, थिरक-थिरक, कर,

खुलकर, क़त्ले-आम करेंगी.



रसिकों बीच, विरागी जैसे,   

अलग-थलग, तुम पड़ जाओगे,

नज़र उठाई, जहाँ कहीं भी,

वहीं, शर्म से, गड़ जाओगे. 



बिन श्रद्धा के, श्राद्ध तुम्हारा,

करते हैं, उनको करने दो, 

इस विराट, आयोजन से जो,

भरते जेब, उन्हें भरने दो.



गांधी टोपी, बिकतीं फिर से,

गांधी लाठी, चलतीं फिर से,

गाँधी की बकरी की, बलि दे,

बिरयानी, पकतीं हैं फिर से.



गाँधी छोड़ो, राजघाट को,

राज-नगर के, ठाठ-बाट को,

तुम समाधि में लेटे कैसे,

सहते निर्मम, लूटपाट को?



दलित बस्तियों में ही जाकर,

‘वैष्णव जन्तो’, गा सकते हो,

पीर पराई, हरते-हरते,  

महा-मुक्ति तुम, पा सकते हो.



गाँव-गाँव में, अलख जगाओ,

बहुत अधूरे, काम पड़े हैं,

कितने ही, दरिद्र नारायण,

आस लगाए, द्वार खड़े हैं.



भुला चुकी है, दिल्ली तुमको, 

तुम भी उसे, भूल ही जाओ,

जहाँ न्याय हो, समरसता हो,

अपना चरखा, वहीं चलाओ.



सत्य, अहिंसा और प्रेम की,

नगरी कोई, और बसाओ,

सत्य, अहिंसा और प्रेम की,

नगरी कोई, और बसाओ.
                                              -आदरणीय गोपेश जसवाल 


'बापू' तेरे पवित्र चरणों में हम सभी भारतवासियों का कोटि-कोटि नमन। 

उद्घोषणा 
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धन्यवाद।



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आज्ञा दें  !



'एकव्य' 


'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने आज की इस कड़ी को अपने प्यारे 'बापू' को अर्पण करता है। 


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