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सोमवार, 31 दिसंबर 2018

७२.....अरे ए कक्का ! ई रामभरोसे रॉकेट कहाँ से ले आए ?

अरे ए कक्का ! ई रामभरोसे रॉकेट कहाँ से ले आए ? 
कक्का - अरे उहे मंत्री जी पकड़ा दीन, अउर का ! तुम तो जानत हो कलुआ कि हम कितने नास्तिक हैं अउरो ऊ डिस्टेंस दर्शनवाला अलगे रार मचाये पड़ा है ! मंत्री जी कहिन - इस वर्ष दो हज़ार उन्नीस में उनके ही सरकार बनी। अउर सबही साहित्य अवॉर्ड उहे ले जाई जउन उनका ई रामभरोसे रॉकेट अपने छज्जा से उड़ाई ! अब उहे अब्दुल मियाँ को देखो आजकल रहीम ब्रांड चरख़ा नचा रहे हैं अपने आँगन मा ! सही कह रहे हो कक्का ! हमही खलिहर बैठे पड़े हैं जो सत्तर साल से ई तीन रंग वाला कपड़ा लेकर हज़रतगंज की गलियों में नाच रहे हैं अउरो ई रेक्सिन वाला गाँधीवादी चप्पल भी टूट गया है कल अभी कीला लगवाए रहे इम्मा। अब देखो औरो कितना चलता ई मुआ हमरे साथ ! बाकी सब ठीक बा।
    'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  


 चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........  

फिर किस लिए
 दामन में मुंह
 छुपाने लगे

  खिर , अकिंचन आखर की
है अपनी भी , कुछ विवशता !

 न रहा है अतीत,
जिंदगी का एक वर्ष 

 नौ मन तेल पे राधा नाचे ,
तेली बैल को जोते रहना .
आँख के अंधे नाम नयन सुख ,

 चमक चमक कर नभ में जब 
जिया धड़काती दामिनी 
घबराना नहीं डरना भी नहीं

  प्रेम को ओढें
प्रेम को बिछाएं
प्रेम को पियें
प्रेम को ही जियें

 "कातिक नहान के मेले में रघुनाथपुर के जमींदार, 
बाबू रामचन्नर सिंह, की परपतोह बहुरिया पधारी थी. मेले के 
पास पहुंचते ही चार साल के कुंवरजी को दिसा फिरने की तलब हुई. बैलगाड़ी वहीँ खड़ी कर दी गयी. 

 उसकी अपनी ख़ूबी है हिज़्र को न कम आँको
जी से पास हैं जो सब दूरियों के नाते हैं

 जला दी गयी अंजलि !
ताँडव करती 
ख़ौफ़नाक बर्बरता 
चीख़ती-चिल्लाती 
कराहती मानवता 
ज्वाला में 

 मुड़ के देखा तो है मुमकिन रोक ना लें 
नम सी आँखें और कुछ चेहरे उदासे


उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 
धन्यवाद।
 टीपें
 अब 'लोकतंत्र'  संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
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होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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अक्षय गौरव त्रैमासिक ई-पत्रिका के प्रथम आगामी अंक ( जनवरी-मार्च 2019 ) हेतु हम सभी रचनाकारों से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। 31 जनवरी 2019  तक रचनाएँ हमें प्रेषित की जा सकती हैं। रचनाएँ नीचे दिए गये ई-मेल पर प्रेषित करें- editor.akshayagaurav@gmail.com 

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

७१............... हमार कौन सी भैसिया मरी जा रही है।

अरे ओ कक्का ! बार-बार यूँ अन्नदाता पर लेख और कविताएं लिखना बंद करो ! 
क्यूँ रे कलुआ तेरे पेट में काहे आग लग रही है अरे लैटेस्ट सेलेबस रचनाओं का तो यही चल रहा है। रामपीठ ,श्यामपीठ अउर जोन-तोन पीठ साहित्य पुरस्कार इन्हीं विषयों पर लिखने वालों को तो मिल रहे हैं इतना मज़ेदार टॉपिक अउर कउन हो सकत है। ज़मीन पर कभी पैर न रखन वाले साहित्यकार तो आज लासा के टुटपुँजिये सैटेलाईट की सहायता से कीचड़ भरे खेतों में उतर-उतरकर साहित्य में जो गर्दा मचाय पड़े हैं उ तुमका नाही दिखत ! अउर जब हम उनके दुख-दर्द बांटने चलत हैं तो तुम फ़जीहत मचाय पड़े हो। 
हाँ-हाँ कक्का तुमहो धूल चाटो ! हमार कौन सी भैसिया मरी जा रही है। बाकी सब ठीक बा !
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 जनम की ख़ातिर नहीं उचित है, भारत का माहौल अभी,
कुछ सदियों तक रुके रहो, जनम पे हो लाहौल अभी .

 जोइ बिटप परपंथि हुँत होत उदारू चेत | 
साख बियोजित होइ सो उपरे मूर समेत || २ || 


 कुछ क़िस्से उड़ते बादल के,
कुछ क़िस्से आधे पागल के I



 हाँ मगर ये है मुझे ख़्वाब सुहाना आया

 एल्बम के पन्नों में कहीं, 
दबी छुपी सी है वो 
हंसी,

 सफल दुआ जीवन की कोई -
स्नेह की शीतल पुरवाई है ;

 कूदना तैयार हो जो सौ प्रतीशत
भूल जाना की नया अवसर मिलेगा

 य बजरंगबली!
आपकी जाति पर खलबली!!
 मुस्कान में बदलो !!!
  र्द को गीत में बदलो,
व्यथा को तान में बदलो !
जमाना साथ ना रोएगा

खोल न लब, आज़ाद नहीं तू

 फ़ैज़ की नज़्म – ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’, इमरजेंसी का ‘अनुशासन पर्व’, जॉर्ज ओर्वेल के उपन्यास – ‘नाईन्टीन एटी फ़ोर’ का अधिनायक – ‘बिग ब्रदर’, और साहिर का नग्मा – ‘हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काटों का हार मिला’, ये सब एक साथ याद आ गए तो कुछ पंक्तियाँ मेरे दिल में उतरीं, जिन्हें अब मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ -

 



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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

७०.........गज़ब हो गवा रे कलुआ ! उ खजांची बदल गवा।

गज़ब हो गवा रे कलुआ ! उ खजांची बदल गवा। 
रे कक्का ! उ बदल गवा तो बदल गवा तोहरे सीना काहे फूटा जा रहा है। 
ई तो होना ही था ! आखिर बदला-बदली संसार का नियम जो ठहरा ! तुम ठण्ड रक्खो नहीं तो ई हड्डी गलाई ठंडी में जल्द ही ठण्ड पड़ जाओगे ! अउर बाकी सब ठीक बा ! 

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सौ दिनों के वाद आए शेख़ जब उसके यहाँ,
बोले बेटा पास मेरे ऊँट और घोडे कहाँ,


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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

६९.......दूसरे की कहानी को अपना बताने में !

 हज़रतगंज में ट्रैफिक आम बात है किन्तु आज कुछ ज्यादा ही लगती है ! सोचता हुआ कलुआ विधानसभा की ओर अपनी ही धुन में चला जा रहा था। एकाएक कलुआ कुछ देखकर ठिठक-सा गया। ई का ! कक्का मुकुटधारी बने जीपवाले  रथ पर सवार ,माथे पर विजयश्री ,हाथों में विजय पताका जिसपर लिखा था ! लघुकथा और कविता प्रतियोगिता २०१८ का विजयी ! अब ई का है ? कलुआ सोचता हुआ अपनी क्लीनसेव दाढ़ी खुजाता है और किसी तरह भीड़ में धक्का-मुक्की करता हुआ रथ के समीप पहुँच ही जाता है। कलुआ को देखते ही कक्का के श्रीमुख से दो शब्द निकलते हैं। अरे ! कलुआ 
कलुआ - का कक्का ! ई का नौटंकी फान रक्खे हो। तुमका और कोई काम नाही है का ! तनिक सिर उठाकर ताको ! पूरा हज़रतगंज चौराहा तुम्हारी इस नौटंकी से त्राहिमाम ! त्राहिमाम कर रहा है। का ई जीपवाला टुटपुँजिया रथ मैदान में ना घुमा सकत हो ! सबके कानों में चरस बोई के मानोगे ! 
कक्का - का रे कलुआ ! तहुँ जब देखो तब बकर-बकर करते रहते हो ! का तुम हमरी जीत से खुश नाही ! अरे मैंने राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता जीती है और हाँ एक राज की बात कहें -कक्का अपना मुँह कलुआ के कान में घुसेड़ते हुए - उ याद है अखबार वाली कहानी ! कउन उ ! बेढब ज्योतिषी वाली। ...  कलुआ याद करता हुआ। कक्का - हाँ ! उहे ! उसी कहानी को मैंने थोड़ा सा मोड़ दिया और लघुकथा बनाकर प्रतियोगिता में भेज दिया। निर्णायक मंडल को मेरी कहानी में नयापन लगा और उन्होंने मुझे इस प्रतियोगिता का विजेता घोषित कर दिया। अब जीत की खुशी के लिए जुलूस-वुलूस तो आम बात है हमरे देश में। इहाँ मुद्दा ये है कि मेरी जीत का डंका तो बजना ही चाहिए क्यूँ ! सही कहा ना !
कलुआ - हाँ ! सो तो है ! "जितने का मुर्गी नाही ,उतने की नोचाई'' भई वाह !  मेहनत तो आपने की ही है वो अलग बात है दूसरे की कहानी को अपना बताने में ! अउर बाकी सब ठीक है !
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सफ़ैद झूट 


 दाढ़ी है सन सफ़ैद औ मोछा सफ़ैद है,

 लो चाँद ईद का निकला, रचनाकार _श्रीमती राजेश कुमारी राज, संगीत_ बिमला भ...

 कुछ और नया होना चाहिये
सुगन्धित हवाओं का बहना
फूलों का गहना
ओस की बूंदों को गूंथना

कोहरे को छू कर देखना

तमाम उम्र काम न आई दुआ उसकी ... !
ड़फड़ाते रहे ख्वाब उड़ान भरने को
इक झौंका हवा का करीब नहीं आया !

   आहत उर की पीड़ा कविता बन गयी है

 आहत उर की पीड़ा कविता बन गयी है
मानव की परवशता कविता बन गयी है ||

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