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सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

६३........''मैं भी गाँधी हूँ" !

 अब क्या तेरा और क्या मेरा, सबकुछ तेरा ही था ! गाँधी से मतभेद रखने वाले और उनके मत निकट रखने वाले सभी गणमान्य ''मैं भी गाँधी हूँ" ! चुनाव सिर पर है और नीली-पीली झण्डियाँ गली-मोहल्लों की शान बनती नजर आ रही हैं। पार्टी विशेष के नारे ज़ुबाँ पर किन्तु देश का नारा कहीं गुम-सा है। ब्लॉग जगत में पार्टियों के नुमाइंदे बढ़चढ़कर अपनी पार्टियों द्वारा किये गए उचित-अनुचित कार्यों की दुहाई दे रहे हैं और कुछ तथाकथित धर्म का ध्वज बुलंद करने में त्यौहारों का सहारा ले रहे हैं। कुछ की जिह्वा न चाहते हुए भी बापू का नाम लेने को मजबूर है और कुछ उन्हें यों ही श्रद्धासुमन अर्पित किये जा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों ने गली-मोहल्लों में हलवाई की दुकान चुनाव प्रचारकों हेतु आरक्षित करना प्रारम्भ कर दिया है आपको अब पूरी-सब्जी खरीदने की आवश्यकता नही है बस ज़ुबां पर उनके कागज़ी कार्यों का ब्यौरा रखिए और देशभक्ति की भावना घर के किसी कोने में रक्खे पुराने संदूक में जिस पर लिखा हो "देशप्रेम सो रहा है और व्यक्तिवाद प्रबल'' !  धर्म को जागृत करिए ! पूजा स्थल पुनः बनेंगे ! जिन्हें यह नारा पसंद न आए वे निसंदेह देश गमन करें ! क्योंकि यह देश केवल मेरा है और मेरे ही दादा-परदादा ने अपने प्राणों की आहुति दी है और सभी अन्य धर्म और जाति विशेष के लोग उस समय जब मेरे पूज्य दादा अंग्रेजों द्वारा चौराहे पर धागे से लटकाए जा रहे थे तब समोसा-चटनी चट करने में तल्लीन थे अतः मौलिक रूप से यह देश मेरा है ! अरे कक्का ! क्या कह रहे हो ? आखिर कब तक यह देश तुम्हारा ही रहेगा कोई एक्सपाइरी डेट है क्या ? हाँ रे ! कलुआ, बस यह चुनाव ख़त्म होने तक। और ये लगा सिक्सर ! क्या करूँ ,आदत से मजबूर हूँ ! 
(  लेखनी : सटका हुआ कलुआ )

रचनाओं की भीड़ इकठ्ठा करना हमारा लक्ष्य नहीं ! लक्ष्य केवल सार्थक साहित्य दर्शन ! 
           
'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  
हमारी आज की अतिथि रचनाकार आदरणीया साधना वैद जी एवं अपर्णा वाजपई जी 

आदरणीया साधना वैद जी

 सुना है
तुमने किसी बुत को छूकर
उसमें प्राण डाल दिये
ठीक वैसे ही जैसे सदियों पहले
राम ने अहिल्या को छूकर
उसे जीवित कर दिया था !
सुना है तुम जादूगर हो
तुम्हें फ़िज़ा में तैरती
सुगबुगाहटों की भाषा को
पढ़ना भी आता है !
यहाँ की सुगबुगाहटों में भी
कुछ खामोश अनसुने गीत हैं
यहाँ के सर्द सफ़ेद इन
संगमरमरी बुतों में भी
कुछ धड़कने दफ़न हैं
कुछ सिसकियाँ दबी हैं
कुछ रुंधे स्वर छैनी हथौड़ी की
चोट से घायल हो
खामोश पड़े हैं
तुम्हें तो खामोशियों को
पढ़ने का हुनर भी आता है ना
तो कर दो ना साकार
इन आँखों के भी सपने,
दे दो ना आवाज़
इन पथरीले होंठों पर मचलते
हुए खामोश नगमों को,
छू लो न आकर इन बुतों को
अपने पारस स्पर्श से
कि बेहद कलात्मकता से तराशे हुए
इन संगमरमरी जिस्मों को भी
चंद साँसें मिल जायें,
कि इनकी यह बेजान मुस्कान
सजीव हो जाये,
कि इनकी पथराई हुई आँखों में
नव रस का सोता फूट पड़े !
सदियों से प्रतीक्षा है इन्हें
कि कोई मसीहा आयेगा
और इन्हें छूकर इनमें
प्राणों का संचरण कर जाएगा !
यूँ तो हर रोज़ हज़ारों आते हैं
लेकिन लेकिन ये बुत ज़माने से 
ऐसे ही खड़े हैं 
अपनी आँखों में वीरानी लिए हुए 
और अपने अधरों पर यह 
पथरीली मुस्कान ओढ़े हुए 
इनकी आँखों में
किसका ख्वाब है
किसकी प्रतीक्षा है

कौन जाने !

आदरणीया "अपर्णा" वाजपई जी 


उस दिन कुछ धागे
बस यूं ही लपेट दिए बरगद में,
और जोड़ने लगी उम्र का हिसाब
उंगलियों पर पड़े निशान,
सच ही बोलते हैं,
एक पत्ता गिरा,
कह गया सच,
धागों से उम्र न बढ़ती है,
न घटती है,
उतर ही जाता है उम्र का उबाल एक दिन,
जमीन बुला लेती है अंततः
बैठाती है गोद,
थपकियों में आती है मौत की नींद,
छूट जाते हैं चंद निशान
धागों की शक्ल में.....
बरगद हरियाता है,
हर पतझड़ दे बाद,
      जीवन भी...... 
                                                -अपर्णा वाजपई 

   चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........

लेखिका सुश्री मालती मिश्रा 'अन्तर्ध्वनि' काव्य संग्रह 
के उपरान्त 13 कहानियों का संग्रह  'इंतज़ार' लेकर कथा की दुनियाँ में पदार्पण कर रही हैं।


 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शायरों ने आम ज़िन्दगी की 
दुश्वारियों को अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया और उसे पूरी संज़ीदगी से सामने रखा। 

प्रीति साँची सोइ कहो होइब मीन समान | 
पिय पानि बिलगाइब जूँ छूटे तलफत प्रान || २  || 

 यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

 ब्रह्माण्ड की रचना में 
है सत्त्व ,रज और तम 
गुणों की प्रधानता, 
सृष्टि के समस्त रंगों को 
सोख  लेने की 
 है काले रंग में क्षमता। 


 द्वापर युग में, प्रीति-भोज हेतु, श्री कृष्ण का, सुदामा को निमंत्रण


उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
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स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
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यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 
धन्यवाद।

 टीपें
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  सभी छायाचित्र : साभार  गूगल


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