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सोमवार, 26 मार्च 2018

३८..........साहित्य का कोई धर्म नहीं

साहित्य का कोई धर्म नहीं न ही कोई पूर्व निर्धारित जाति ! बल्कि साहित्य तो स्वयं में ही एक महान धर्म है। और इसका जो ईमानदारी से पालन करे वह श्रेष्ठ रचनाधर्मी परन्तु यह छोटी -सी बात हमारे कक्का जी को कब समझ में आएगी। माना सूरदास ,मीरा और तुलसी सभी ईश्वर की भक्ति में डूबकर अमर साहित्य के इतिहास में अमर हो गए। यह उस काल की आवश्यकता और सृजनशीलता भी थी परन्तु आज कक्का जी का साहित्य हमारे समाज को अलग-अलग खेमे में विभाजित करने का प्रयास करता नजर आता है। आज हमारा साहित्य वर्ग किसकी आवाज बनता जा रहा है ? हम किसी संप्रदाय विशेष को लाभ पहुँचाने हेतु निरंतर साहित्यधर्मिता की अनदेखी करते चले जा रहे हैं। किसी राजनैतिक पार्टी के पक्ष में अपने सृजन को धूमिल करते नजर आ  रहे हैं। बात पिछले दिनों की है हमारे कक्का जी की नई पुस्तक का विमोचन होना था। कक्का जी ने इमर्जेंसी में साहित्य मंडली अपने घर बुलाई। पनीर-पकौड़े और पूरियाँ दे दना -दन छनने लगीं।  सभी इस महफ़िल में विभिन्न तरह के व्यंजनों का स्वाद ले रहे थे। कहीं रूह -अफ़जाह तो कहीं कोल्डड्रिंक्स की बोतलें झमा-झम खुल रहीं थीं। सभी ओर साहित्य के नाम पर पार्टी का आनंद। व्यंजनों के साथ
गहन विचार-विमर्श हुआ। हमारे विधायक जी के पर्सनल सेक्रेटरी भी मौज़ूद थे जिनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई घरेलू रिश्ता नहीं। सभी ने पुस्तक के विमोचन हेतु साहित्य के जाने-माने हस्तियों का नाम गिनवा दिया और हमारे कक्का जी सभी के प्रस्तावित नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते नजर आये। तभी विधायक जी के सेक्रेटरी ने तपाक से मुँह खोला और बोला, अरे कक्का जी ! जब आपको इन्हीं लेखनी के पुजारियों से अपने पुस्तक की पूजा करवानी थी तब काहे हमारा टाइम खोटा किये। कक्का जी विधायक जी के सेक्रेटरी को संभालते हुए,अरे ! नहीं-नहीं 'झुरमुटलाल' हम तो पुस्तक का विमोचन विधायक जी से ही करायेंगे। इन साहित्यकारों से सलाह -मशविरा तो एक औपचारिकता है बस। आखिर हमें भी ज्ञानपीठ कउनो काटता है क्या ! मैंने भी गुस्से में आकर कक्का जी को सबके सामने भला-बुरा सुना डाला और चलता बना। कक्का जी ने मुझे बहुत रोकने की कोशिश की। अरे भई ! कलुआ काहे गुस्सा होता है परन्तु मैंने कक्का जी की एक न सुनी। आशा है ! आपका भी धर्म साहित्य ही होगा नहीं तो कोई दूसरा धर्म देख लीजिये। वैसे भी हमारे देश में धर्मों की कोई कमी नहीं। चलिए ! चलता हूँ मैं, मुझे अपना भी तो धर्म निभाना है।

'लोकतंत्र' संवाद मंच 
किसी भी राजनैतिक संगठन, जाति-धर्म,सम्प्रदाय 
विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं करता। हम साहित्यधर्मिता के पालन हेतु
 कटिबद्ध हैं। अतः इस मंच पर आपसभी खुले विचारों वाले पाठकों व लेखकों का हार्दिक स्वागत है।     

आज के रचनाकार 'स्तम्भ' में हमारी मेहमान 
आदरणीया पुष्पा मेहरा जी की रचना 

                  आँचल  माँ का        

        माँ! तेरे आँचल में
               लहराता ममता का सागर 
               तेरी स्नेहमयी आँखें   
               लगती हैं प्यार की गागर |

               डगमग पाँवों में भरती 
               तू शक्ति अलौकिक,
               कड़वे-खट्टे घूँट सदा तू 
               ख़ुद पीती  ,मिश्री सा  
               माधुर्य घोलकर
                        सदा हृदय से मुझे लगाती |         

               तेरे हृदय श्रोत से झरता   
                           वात्सल्य अमोलिक,               
               घर–आँगन की फुलवारी की 
               तू है बस रजनीगन्धा !!

               तेरे आशीषों तले ही 
               नवांकुर पल्लवित
               पुष्पित होकर हम    
               पाना चाहते सदा 
                              तेरे चरणों की धूल |             

चलिए ! चलते हैं आज के सप्ताहभर की रचनाओं की ओर 

बर्फ़ 
            सुदूर पर्वत पर
            बर्फ़ पिघलेगी
          प्राचीनकाल से बहती
         निर्मल नदिया में बहेगी
          अच्छे दिन की

शर्त ये है कि.


     प्रेम बंटता है अगर
तुममें और हममें 

 ढल रहे हैं 

 मेरे ख्यालों के शब्द,प्रश्न बनके मुझसे ही पूछते हैं, 
ये प्रश्न मेरे जवाब बन,आपके लफ़्ज़ों में पल रहे हैं।  

 नन्ही गौरैया
 हर रोज आती थी
मेरे आँगन में

अब आती नहीं

प्रसंगवश 
जब तुम रोती हो अकेले 
सबसे छिपकर 

 जिद्दी मन... 

 तारों से भी दूर  
मंज़िल ढूँढता है  
यायावर-सा भटकता है,  

 आऊँगी चिड़िया बनकर
गौरैया बिटिया एक समान
दोनों घर- आँगन की शान

यूं मिलती है कविता मुझसे... 

अपनी स्मृतियों को रिवाइज करती हूं तो 
खुद को स्मृति के उस पहले पन्ने के सामने खड़ा 
पाती हूं, जिस पर मरीना ने लिखा था, मुलाकातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं. माथे टकरा जाते हैं. 

   बेटी तो प्यारी है

 बेटी तो प्यारी है
मेरे घर आई
ये मन आभारी है!

कुदरत का वजीफा आता है 
   जो  ज़ख्म   छुपा   कर  रखते  हैं  ईमान  बचाकर  चलते  हैं ।
हिस्से में उन्हीं के ही अक्सर  कुदरत  का  वजीफ़ा आता है ।।

 नीति-कथा 
गुरु जी -'बच्चों तुमको एक प्राचीन 
नीति-कथा सुनाता हूँ. एक राजा के दरबार में तीन चोर पेश किये गए. 
उन तीनों ने राजा के कोषागार में चोरी की थी पर वहां से भागते समय पकडे गए थे. 

   जब अपना कोई छल करता... 
 दिल छलनी-छलनी होता है 
जब अपना कोई छल करता |

  तिश्नगी 

 मेरी धड़कन ने सुनी,जब तेरी धड़कन की सदा,
तब मेरी टूटती साँसों ने 'ज़िंदगी' लिक्खा 

 सुनो ! मन की व्यथा
  
 सुनो  !   मन की  व्यथा कथा -
समझो मन के जज्बात मेरे ,
कभी झाँकों  इस  सूने मन  में -

 रुक   कुछ पल साथ मेरे  !

 विराट 
   पेड़ की डालियों के स्टम्प बनाकर
ईंट-पत्थरों की सीमा-रेखा के बीच

 जरूरी है सबूत होने ना होने का रद्दी 
 आदतें 
बदलती नहीं हैं 
छोटे से 

अंतराल में 

 छाया की माया 
 कल सुबह हफ्तों बाद कुछ कविताएँ लिखीं, 
यदि उन्हें कविता कहा जा सकता है तो, पर वे सहज स्फूर्त थीं. प्रातःकाल
 के दृश्यों को देखकर कुछ द्रवित होकर बहने लगा था. कल सुबह मृणाल ज्योति भी गयी.

 कविता 
 कागज़ पर सियाही से
उकेरी हुई
मन का संवाद

सुरजीत पातर की कविताएं 
मैं रात का आखिरी टापू 
झर रहा हूँ विलाप कर रहा हूँ 

   आज के बच्चे कल के नेता

 चुनाव के मौसम में
हो रही धमाल है

 समय - एक इरेज़र ... ? 
 सांसों के सिवा
मुसलसल कुछ नहीं जिंदगी में
वैसे तिश्नगी भी मुसलसल होती है

जब तक तू नहीं होती

  किताबों की दुनिया
 खुद भी आखिर-कार उन्हीं वादों से बहले 

जिन से सारी दुनिया को बहलाया हमने 

 शेष पहर - - 
 मानों तो सब कुछ है यहाँ, और ग़र न 

मानों तो कुछ भी नहीं इस संसार 

 ज़िंदगी 
 जग में जब सुनिश्चित
केवल जन्म और मृत्यु
क्यों कर देते विस्मृत
आदि और अंत को,

डा. अभिज्ञात जी के ब्लॉग से  
              बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई पर केदारनाथ सिंह जी 
'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य के इस अनमोल सितारे को कोटि-कोटि नमन करता है।   


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'एकलव्य' 


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       सभी छायाचित्र : साभार गूगल 

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