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सोमवार, 12 मार्च 2018

३६ ......'स्वप्न' प्रत्येक मानव की अधूरी इच्छाएं !

'स्वप्न' प्रत्येक मानव की अधूरी इच्छाएं,जिसे वह प्रतिक्षण प्राप्त करने को लालायित रहता है। कभी पूर्ण होती हैं और कभी पूर्ण होते-होते दम तोड़ जाती हैं। पुनः अपूर्ण इच्छाएं एक नवीन 'स्वप्न' के सृजन हेतु हमें प्रोत्साहित करती हैं। और स्वप्न की बात करें तो सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों हो सकते हैं ! क्या धनी और क्या निर्धन ! क्या महल और क्या झोपड़ी ! स्वप्न तो बस स्वप्न हैं। वो जमीन पर लेटकर देखे जायें अथवा मख़मली शैय्या पर। कोई अंतर नहीं। हाँ अंतर है केवल हमारे विचारों में। कई स्वप्न इस दौड़ती-भागती जीवन के ग़ुलाम बनकर रह जाते हैं। प्रकृति के इस अनमोल उपहार को हम दुनिया के चकाचौंध में कहीं खो देते हैं। परन्तु कुछ ऐसे भी मानव हैं जो अपने जीवन में एक संतुलन बनाये रखते हुए न ही इन्हें देखते हैं बल्कि पूर्णतः जीने में सफल भी होते हैं। ऐसे ही दो प्रेरणास्रोत 
आदरणीया 'साधना' वैद और आदरणीया डा. 'शुभा ' आर. फड़के 
'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में 

आपका हार्दिक स्वागत करता है।


आदरणीया साधना वैद 

परिचय 
एक अत्यंत सामान्य भारतीय नारी हूँ और समस्त जीवन परिस्थितिजन्य विभिन्न भूमिकाओं को निभाते हुए ही बीत गया ! एक बेटी, बहन, बहू, पत्नी, भाभी, माँ, दादी, के रूप में स्वयं को स्थापित और सिद्ध करती रही ! एक कुशल गृहणी एवं अर्धांगिनी के रूप में भी सदैव स्वयं को निखारने में प्रयत्नशील रही ! लेखन का शौक मुझे अपनी माँ, श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' जी, से विरासत में मिला ! वे अपने समय की काफी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कवियित्री थीं ! जब तक गृहस्थी के दायित्व थे मन उसी में रमा था ! इस बीच यदा कदा थोड़ा बहुत लेखन भी चलता रहा ! लेकिन २००८ में जब से ब्लॉग बनाया मैंने नियमित लेखन के प्रति ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास किया है ! हर विषय, हर मुद्दा जो मेरे सिद्धांतों से टकराता है या मेरी सोच को प्रभावित करता है मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता है ! मैं एक भावुक, संवेदनशील एवं न्यायप्रिय महिला हूँ और अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार यथासंभव अपने आस पास के लोगों में खुशियाँ बाँटना मुझे अच्छा लगता है ! 

साहित्यिक जीवन 

प्रकाशित  कविता -संग्रह  :   'संवेदना की नम धरा पर',












अन्य साझा संग्रह 

  'टूटते सितारों की उड़ान', 'प्रतिभाओं की कमी नहीं', 
'शब्दों के अरण्य में', 'नारी विमर्श के अर्थ' एवं 'बालार्क' !

टिप्पणी :  इसके अलावा पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं निरंतर प्रकाशित।

  ब्लॉग : 'सुधीनामा'  
आदरणीया 'साधना' वैद जी का परिचय उन्हीं के शब्दों में।
 
विशाल हिमखण्ड के नीचे
मंथर गति से बहती
सबकी नज़रों से ओझल
एक गुमनाम सी जलधारा हूँ मैं !
अनंत आकाश में चहुँ ओर
प्रकाशित अनगिनत तारक मंडलों में
एक टिमटिमाता सा धुँधला सितारा हूँ मैं !
निर्जन वीरान सुनसान वादियों में
कंठ से फूटने को व्याकुल
विदग्ध हृदय की एक अधीर
अनुच्चरित पुकार हूँ मैं !
सुदूर वन में सघन झाड़ियों के बीच
खिलने को आतुर दबा छिपा
एक संकुचित नन्हा सा फूल हूँ मैं !
वेदना के भार से बोझिल
कलम से कागज़ पर शब्दबद्ध
होने को तैयार किसी कविता की
एक अनभिव्यक्त चौपाई हूँ मैं !
करुणा से ओत प्रोत किसी
निश्छल, निष्कपट, निर्मल हृदय की
अधरों की कैद से बाहर
निकलने को छटपटाती
एक मासूम सी पार्थना की प्रतिध्वनि हूँ मैं !
वक्त की चोटों से जर्जर, घायल, विच्छिन्न
किन्तु हालात के आगे डट कर खड़े
किसी मुफलिस की आँख से
टपकने को तत्पर
एक अश्रु विगलित मुस्कान में छिपा
विद्रूप का रुँधा हुआ स्वर हूँ मैं !
इस अंतहीन विशाल जन अरण्य में
अनाम, अनजान, अपरिचित,
विस्मृत प्राय एक नितांत
नगण्य सी शख्सियत हूँ मैं !


( आदरणीया 'साधना' वैद जी की कलम से )


आदरणीया डा. 'शुभा' आर.फड़के 

परिचय 
संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान 
संस्थान, लखनऊ के आनुवंशिकी आयुर्विज्ञान  
विभाग के विभागाध्यक्षा के पद पर वर्तमान में कार्यरत।
  आदरणीया डा. 'शुभा 'आर.फड़के एक चिकित्सक होने के साथ-साथ एक अच्छी कवियत्री भी हैं। जहाँ एक ओर  मानवमात्र की सेवा हेतु पूर्णतः समर्पित वहीं एक कवियत्री की तरह कोमल हृदय जो मानव की संवेदनाओं को पूर्णतः समझने में सक्षम। 
'लोकतंत्र' संवाद मंच मानवमात्र के प्रति इनके समर्पण को कोटि-कोटि नमन करता है।   
प्रस्तुत रचना 'मराठी' भाषा में सृजित की गई है जो साहित्य और विज्ञान का एक अनोखा संगम है।
  
स्त्री मात्र...........
 एक्स 'गुणसूत्र' जास्त आहे
पण हिमोग्लोबिन मात्र कमी आहे
उंची थोडी कमी
मात्र कामाची लगबग जास्त आहे
धाववक,समयसूचकता
अनेक खुबी आहेत गाठीला
मीनोरेज़िया, ब्रेस्ट कैंसर
अनेक आजार जमेला
पण हार्ट डिसिज आणि गाऊट होत नाही मला
बुद्धी आणि भावना असतात जास्त
कुणी मानो न मानो पण,
होत ते अनेकदा व्यक्त
काही कमी,काही जास्त
मतभेद असो व्याबाबत
सत्यमात्र , एक आहे
स्पर्मस असतात बिलियनस
आणि अंडक असतात ४०० फक्त
तरी जन्मदात्री ची शक्ति
अजूनही आहे अव्यक्त,
अजूनही आहे अव्यक्त।  
 
( आदरणीया डा. शुभा आर.फड़के जी की कलम से )

रचना का हिंदी अनुवाद ........ 

स्त्री - सिर्फ तुम ,सिर्फ तुम...... 

गुणसूत्र एक्स ज्यादा है। 
परन्तु हीमोग्लोबिन की मात्रा कम है 
लम्बाई में है थोड़ी कमी 
परन्तु कार्य करने की इच्छा में नहीं कमी 
भागदौड़ ,समयसूचक और प्रत्येक कार्य में सक्षम 
प्रदान किए हैं,ईश्वर ने अनेकों गुण। 
मासिक चक्र ,स्तन कर्क रोग पैकेज के साथ विशेष बीमारियां। 
कोमल है हृदय परन्तु सहनशील भरपूर 
फिर भी हृदयाघात और गाउट से रहते हैं दूर। 
बुद्धि और भावना,दोनों हैं भरीं 
मानो न मानो परन्तु बात है खरी। 
कुछ कम ,कुछ ज्यादा 
मतभेद न करने का वादा। 
सारभौमिक सत्य है एक सादा 
करो न उसका सौदा !
शुक्राणु होते हैं अरबों 
परन्तु अंडाणु चार सौ मात्र।
प्रकृति ने दिया है 
जन्म देने का वर 
परन्तु जन्मदात्री अभी तक बेख़बर।  
चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर

मूर्ति    

   सोचता हूँ
गढ़ दूँ
मैं भी अपनी
मिट्टी की मूर्ति, 


 वुड बी मदर हूँ मैं....

   मेरी देह आकार बदलने लगी
उठना-बैठना, चलना-फिरना
सब कुछ बदल गया


 क़र्ज़ मुहब्बत का .. 
   उम्र खर्च हो जाती है लम्हा लम्हा
तुम्हारी यादों का सिलसिला ख़त्म नहीं होता.



 सलाह  
उसने एक बार कहा था 
हमेशा ऐसी जगह रहना 

  महिला दिवस

   कब से लड़ रही है
अज्ञानता और अशिक्षा से 

रूढ़ियों में उलझी है
अपनी स्वेच्छा से


   "तांका" (उलाहना) 
 क्यों तुम्हें नेह
जताना पड़ता है
समझो कभी‎


वो  
सुबह होते ही 
वो उठती है

   तुम गाना गीत
 दोस्त, सांत्वना से बचो
जब जरूरी लग रहा हो सांत्वना देना
कि सांत्वना से बड़ा दंश कोई नहीं.


  रेगिस्तान 
जीवन के रेगिस्तान में 
मैं ऊँटनी बन भटकती रही। 

  महिला दिवस की बधाई।।
लो, हो ली होली भी,
जो कल थे फागुन के बसंती बयार,
आज बने चैतार के उदास लहर।

  अनिवार्य उपस्थिति 
जेएनयू में अनिवार्य उपस्थिति को 
लेकर विश्विद्यालय प्रशासन और छात्रसंघ में ख़ूब 
तनातनी चल रही है. एक तरफ़ प्रशासन की ओर से 
विद्यार्थियों के लिए कक्षा में न्यूनतम उपस्थिति की अनिवार्यता की बात हो रही है

  चलो ना !!! 
 इस जनम की तरह
हर जनम में,
अनगिनत जन्मों की,



 जीवन में तुम्हारा होना -


  जब सबने रुला दिया -
तब तुमने हंसा दिया ,
ये कौन प्रीत का  जादू   भीतर  -
तुमने जगा दिया  ?


  पिता  
 जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता, तो कह देता,


  छोटी दीवाली
 कल रात्रि फिर एक अनोखा 
स्वप्न देखा..एक विशाल मैदान है. 
नीचे बालू है और एक बड़ी से मेज पड़ी है, 
खुले गगन के नीचे..लकड़ी की मेज है भूरे रंग की, 
रंग भी स्पष्ट दिख रहा था. उसे देखते ही मन में विचार आया,

 महिलाएं चाहती हैं
 चाहती हैँ
ईँट भट्टोँ मेँ
काम करने वाली महिलाएं
कि उनका भी
अपना घर हो


 सबला ...
 नहीं है तू अबला
दिखा दे जमाने को
  थाम हाथ इक दूजे का
  चल साथ -साथ


  सुरजीत पातर की कविताएं
वैसे तो मैं भी चंद्रवंशी 
सौंदर्यवादी 
संध्यामुखी कवि हूँ 

 मन की उड़ान
दो पल की है जिंदगी 
आगा -पीछा छोड़। 

  स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये
  ना हार चाहिये ना गुलाब चाहिये
स्त्री हूँ थोडा सा प्यार चाहिये


सिलसिले 
 काश ठहर जाए वक्त यहीं
और हम खोये रहें
इन्हीं खूबसूरत पलों में 


  एहसास

 पास होकर भी
पास कहाॅ रहता है....


  फेरे
पुष्प की सुरभि से
हुआ भ्रमर आकर्षित
 पहले लगाते चक्कर पर चक्कर




  टीपें
 अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।


आज्ञा दें  !

'एकलव्य'


 सभी छायाचित्र : साभार गूगल

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