वैसे मैं अपने पकौड़े किसी को मुफ़त में नहीं खिलाता। अरे भई ! ये तो मेरा बिजनेस है और वैसे भी घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या ? कल कुछ नंग-धडंग व्यक्ति मेरे ठेले के सामने आकर बैठ गए और कहने लगे भई !पैसा नहीं है परन्तु भूख लगी है। १८० किलोमीटर पैदल चलकर आ रहे हैं जरा अपने पकौड़े खिला दो तो थोड़ा राहत मिलेगी। मैंने तपाक से उत्तर दिया अरे चलो ! आगे बढ़ो। मुफत में यहाँ कुछ भी नहीं मिलता और हाँ थोड़ा यह बताओ तुमलोगों को फोकट में पकौड़े खिलाने में मुझे क्या फायदा ? तुम्हारा हमारा रिश्ता ही क्या है। वैसे भी बेसन के दाम आजकल आसमान छूने लगे हैं। तभी एक लंगोटी और एक मैला कुर्ता पहने अधेड़ व्यक्ति ने मुझे बड़े आश्चर्य से देखते हुए ,भई ! तुम भी पकौड़े बनाने में बेसन और प्याज का इस्तेमाल करते हो। नहीं तो मैं क्या लंडन से आया हूँ। अरे भई ! बेसन के बिना पकौड़े कहाँ। और वैसे भी तुम लोग हो कौन और यहाँ किसलिए मग्झ -मारी कर रहे हो ? तुम्हें और कोई काम नही। अरे भई ! हम तुम्हरे बेसन बनाने वाले पौधे को उगाने वाले लोग हैं। मैंने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा, आश्चर्य से ! ये कैसे हो सकता है। मैं तो केवल पकौड़े बनाता और बेचता हूँ फिर भी मेरा चारमंजिला मकान है शहर में और तो और अभी -अभी मेरे दो साले बैंक का क़र्ज़ लेकर विदेश यात्रा पर गए हैं संभव है वहीं सेटल भी हो जाएं। और तुम तो पकौड़े बनाने वाली सामग्री उगाते हो फिर भी तुम्हारी ये हालत ! पैरों में न चप्पल न ही कपड़े और न ही जेब में एक फूटी कौड़ी। नहीं -नहीं ये नही हो सकता। लो भई, ये पकौड़े खा ही लो तब बात करते हैं और हाँ तुम्हें प्यास भी लगी होगी ! आगे सीवर के पास नगर निगम वालों का नल लगा है पानी वहाँ पी लेना। माफ़ करना आजकल पानी की बहुत किल्लत है शहर में। चलिए छोड़िए ! आपका क्या जाता है। आप तो मज़े से मज़ा लीजिए ,मैं भी ले रहा हूँ।
'लोकतंत्र' संवाद मंच
अपने साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक
के 'लेखक' परिचय क्रम में आज साहित्य के
दो सशक्त 'हस्ताक्षरों ' से आपका परिचय करवाने जा रहा है।
आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा जी
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने 'साप्ताहिक सोमवारीय' अंक में आपका हार्दिक स्वागत करता है।
परिचय :
आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा जी
जन्म- स्थान : मौरावाँ, ज़िला उन्नाव (उ.प्र.)
शिक्षा : एम .ए. (संस्कृत, समाज शास्त्र), बी.टी.
प्रकाशित कृतियाँ : अपना राग, अनछुआ आकाश, रेशा-रेशा , आड़ी-तिरछी रेखाएँ (काव्य - संग्रह ),
'सागर-मन' (पुरस्कृत हाइकु काव्य-संग्रह)
साहित्यिक गतिविधियाँ : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं संगम,आखिरी पन्ना,हिमप्रस्थ,स्वर्ण जयंती प्रतिबिम्ब,विश्व विधायक,अभिनव इमरोज़,हरिगंधा, वीणा, अविराम साहित्यिकी,गवाह आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,बाल-कविताएँ, क्षणिका, हाइकु, सेदोका, ताँका प्रकाशित ।
‘हिंदी हाइकु प्रकृति-काव्यकोश’ , ‘आधी आबादी का आकाश’, ‘सरस्वती सुमन ‘ में हाइकु प्रकाशित, ‘हिंदी प्रचारिणी सभा (कैनेडा)की अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ’हिंदी चेतना’ में हाइकु,साक्षात्कार वा समीक्षा प्रकाशित स. २०१० से प्रकाशित हिंदी हाइकु की वेब पत्रिका व अन्य पत्रिका में हाइकु काव्य संग्रह की समीक्षा प्रकाशित,विभिन संकलनों में दोहे, हाइकु व कविताएँ प्रकाशित |
अंतर्जाल पर प्रकाशन : ‘हिंदी हाइकु’, व ‘‘त्रिवेणी ‘ ब्लॉग में हाइकु, ताँका, सेदोका,चोका,हाइगा प्रकाशित । माननीय आर.डी. काम्बोज जी के ब्लॉग ‘सहज साहित्य’ में कविताएँ व दोहे प्रकाशित |
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन
संपर्क : बी-२०१, सूरजमल विहार, दिल्ली-९२
फ़ोन: ०११-२२१६६५९८
ई-मेल : pushpa.mehra@gmail.com
आदरणीया 'पुष्पा 'मेहरा जी की स्वरचित किताबों के लिंक
किताब का नाम प्रकाशक प्रकाशन-वर्ष
१ . अपना राग सुरभि प्रकाशन ,११००९२ २०१०
(फ्रेंचाइज,किताबघर दरयागंज )
२. अनछुआ आकाश अमृत प्रकाशान , शाहदरा ,११००३२ २०१०
३. रेशा रेशा अमृत प्रकाशन , शाहदरा , ११००३२ २०१३
४. सागार - मन अयन प्रकाशन , महरौली , ११००३० २०१४
५. आड़ी-तिरछी रेखाएँ अनन्य प्रकाशन , शाहदरा, ११००३२ २०१५
आदरणीय 'पुष्पा ' मेहरा जी की एक रचना
मैं
सोचती हूँ, कौन हूँ !
कभी काँच की शीशी में
इत्र सुगंध सी बंद रहती हूँ ,
कभी स्वयं से अनजान
कई रूपों , कई आकारों में
जगह – जगह भटकती हूँ |
अज्ञानी मैं !
वासनाओं की गठरी लिये
मिट्टी के घरौदे में बैठी
स्वयं से कह रही हूँ
ना मैं फूल हूँ, ना इत्र
ना ही चाँद - सूरज हूँ ,
हाँ !
ओस की छोटी सी बूँद ही
पहचान है मेरी |
का हमारे आज के 'लोकतंत्र' संवाद मंच के
साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक के लेखक परिचय क्रम में हम हार्दिक स्वागत करते हैं।
साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक के लेखक परिचय क्रम में हम हार्दिक स्वागत करते हैं।
परिचय
आदरणीया 'विभारानी 'श्रीवास्तव
शिक्षा : B.Ed और LL.B ( गृहणी )
आदरणीया 'विभारानी 'श्रीवास्तव
शिक्षा : B.Ed और LL.B ( गृहणी )
स्थान : पटना /बिहार
स्वयं से स्वयं का नज़रिया : जब तक आर्थिक सहयोग देना अति आवश्यक ना हो दोहरी जिंदगी जीने से बचाव करना चाहिये स्त्री को इसी सोच के कारण दोनों डिग्री रोजगार के उद्देश्यों को पूरा करता हुआ होने के बाद भी नौकरी ना करने का फैसला लिया।
अकेलापन हद से ज्यादा जब बढ़ गया तो पढ़ने के शौक ने भावाभिव्यक्ति की तरफ राह दिखा दिया... अनेक लोग इस राह पर ऊँगली थामे बढ़ाये...
स्वयं से स्वयं का नज़रिया : जब तक आर्थिक सहयोग देना अति आवश्यक ना हो दोहरी जिंदगी जीने से बचाव करना चाहिये स्त्री को इसी सोच के कारण दोनों डिग्री रोजगार के उद्देश्यों को पूरा करता हुआ होने के बाद भी नौकरी ना करने का फैसला लिया।
अकेलापन हद से ज्यादा जब बढ़ गया तो पढ़ने के शौक ने भावाभिव्यक्ति की तरफ राह दिखा दिया... अनेक लोग इस राह पर ऊँगली थामे बढ़ाये...
साहित्यिक जीवन : 2011 में ब्लॉग और फेसबुक की दुनिया से परिचय हुआ 2012 में हाइकु से , 2014 में लघुकथा और 2015 में वर्ण पिरामिड से परिचय हुआ।
सफर जारी है... सीखने के लिए... ना मंजिल कल तय था... ना कल के लिए कुछ तय है...
सफर जारी है... सीखने के लिए... ना मंजिल कल तय था... ना कल के लिए कुछ तय है...
ब्लॉग :http://vranishrivastava1.blogspot.in
चंद पंक्तियाँ आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी की कलम से
तिनका हूँ तिनका का वजूद ही कितना
बढ़ती गई राह दिखाई जिसने जितना
समाजिक ऋण चुकता करते मुझे जाना।
तो चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर
किसान के पैरों में छाले
सरकारी फ़ाइल में
रहती है एक रेखा
जिनके बीच खींची गयी है
क्या आपने देखा ..?
जीवन की परिभाषा
कभी खुशियों की धूप
कभी हकीकत की छाँव
खो गया है मेरा चाँद
तुझे मालूम नहीं
मुझे तेरी फिकर
माना पतझड़ का मौसम है.
घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा
मुक्तक
अपनी धुन में पथिक
दुर्गम पथ पर चल रहा था
बे-वफ़ा
मेरा आसमां, तेरे लिए,
ये मेरी दुआ, तेरे लिए,
बदला
हर उस तिरस्कार का,
हर उस अवहेलना का,
विश्व विटप, प्राणी पाखी
अ परिचित उर्मी सी आ तू ,
जलधि वक्ष पर चढ़ आई.
ह्रदय गर्त में धंस धंसकर
कहीं और चलें - -
करे मुझ पे भी, सुबह तक
तो कम अज़ कम,
मसीहाई हो।
सुरजीत पातर की कविताएं
मेरी सूली बनाओगे
या रबाब
"केवल हिन्दुूवर्ष क्यों"
नौ दिन के ही लिए क्यों, करते पूजा-जाप।
प्रतिदिन पूजा-पाठ से, कटते संकट-ताप।।
प्यार में ...
इस बार भी
वो खामोशी से गुजर गए करीब से
कभी समंदर तो कभी दरिया बन के
कभी आग तो कभी शोला बन के
वसंत की दस्तक
वसंत ने दस्तक दी है,
हल्की-सी ठण्ड लिए
धीरे-से हवा चली है.
अधलिखा अफसाना
अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
सुनो परदेसी !
वो जहाँ हम मिलते थे
खेत कितने होते थे हरे पीले
और किसान कितने होते थे खुश
आज राही मासूम रजा की पुण्यतिथि है
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है
जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद
अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था।
रिश्तों का सच
कोशिश करती हूँ
सबको खुश रख सकूँ
कम से कम उनको तो
जो अपने लगते हैं !!!
सिगरेट
गोल -गोल घूमते
लगातार छल्लों पर छल्ला
भटकन
इश्क पाने की चाह में
भटक गया हूँ।
एक दुःख है जो झरा नहीं
ये झर जाने के दिन हैं इसलिए खूब झर रही हूँ.झर झर
झर. पूरी तरह से झर जाना चाहती हूँ. सांस सांस झर जाना चाहती हूँ.
लहर
हरहराती शोर मचाती
दूध सा उफान खाती
ताकत के गुरूर में उन्मुक्त
लहर ……,
भीतर एक स्वप्न पलता है
आहिस्ता से धरो कदम तुम
हौले-हौले से ही डोलो,
अस्तित्व
मेरा अस्तित्व मेरे साथ है
वो किसी के नाम का मोहताज नहीं
फिर मत कहना, समय रहते ... मैंने कहा नहीं !
एक रूहानी लकीर हूँ
यह बताना चाहती हूँ !
बन्द कर दो सारे दरवाज़े
दूरियों को नमन कर के, धीमे धीमे दौड़िये
साथ कोई दे, न दे , पर धीमे धीमे दौड़िये !
अखंडित विश्वास लेकर धीमे धीमे दौड़िये !
असली दुःख....
तुम दुखी हो !
नहीं लगता मुझे बिल्कुल ऐसा
अधूरा सच
मैं सत्य से अवगत हुआ
काँच की चूड़ियाँ
घोर रात में भी खनखनाती रही
पीर में भी मधुर गीत गाती रही ।
सफ़र जो आसान नहीं ...
बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना
प्रेरणापुंज कल्पना को नमन
लाजवाब थी वो
बेमिसाल थी वो
थी तो हरियाणा की
मग़र समूचे भारत की
मुस्कान थी वो,
******ग़ज़ल
चल पड़े राह तो मंज़िल पे नज़र रखना बस
इस तरह मील के पत्थर नहीं देखे जाते।
सभी के लिए
दीप जैसे जले रोशनी के लिए
भाव जैसे मुखर जिंदगी के लिए
आदरणीय ए.आर. रहमान जी
टीपें
अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
'एकलव्य'
उद्घोषणा
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा।
धन्यवाद।
किसान के पैरों में छाले
सरकारी फ़ाइल में
रहती है एक रेखा
जिनके बीच खींची गयी है
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जीवन की परिभाषा
कभी खुशियों की धूप
कभी हकीकत की छाँव
खो गया है मेरा चाँद
तुझे मालूम नहीं
मुझे तेरी फिकर
माना पतझड़ का मौसम है.
घनघोर तिमिर आतंक करे
वायु भी वेग प्रचंड करे
हो सघन बादलों का फेरा
या अति वृष्टि का हो घेरा
मुक्तक
अपनी धुन में पथिक
दुर्गम पथ पर चल रहा था
बे-वफ़ा
मेरा आसमां, तेरे लिए,
ये मेरी दुआ, तेरे लिए,
बदला
हर उस तिरस्कार का,
हर उस अवहेलना का,
विश्व विटप, प्राणी पाखी
अ परिचित उर्मी सी आ तू ,
जलधि वक्ष पर चढ़ आई.
ह्रदय गर्त में धंस धंसकर
कहीं और चलें - -
करे मुझ पे भी, सुबह तक
तो कम अज़ कम,
मसीहाई हो।
सुरजीत पातर की कविताएं
मेरी सूली बनाओगे
या रबाब
"केवल हिन्दुूवर्ष क्यों"
नौ दिन के ही लिए क्यों, करते पूजा-जाप।
प्रतिदिन पूजा-पाठ से, कटते संकट-ताप।।
प्यार में ...
इस बार भी
वो खामोशी से गुजर गए करीब से
.
कभी समंदर तो कभी दरिया बन के
कभी आग तो कभी शोला बन के
वसंत की दस्तक
वसंत ने दस्तक दी है,
हल्की-सी ठण्ड लिए
धीरे-से हवा चली है.
अधलिखा अफसाना
अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
सुनो परदेसी !
वो जहाँ हम मिलते थे
खेत कितने होते थे हरे पीले
और किसान कितने होते थे खुश
आज राही मासूम रजा की पुण्यतिथि है
मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है
जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद
अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था।
रिश्तों का सच
कोशिश करती हूँ
सबको खुश रख सकूँ
कम से कम उनको तो
जो अपने लगते हैं !!!
सिगरेट
गोल -गोल घूमते
लगातार छल्लों पर छल्ला
भटकन
इश्क पाने की चाह में
भटक गया हूँ।
एक दुःख है जो झरा नहीं
ये झर जाने के दिन हैं इसलिए खूब झर रही हूँ.झर झर
झर. पूरी तरह से झर जाना चाहती हूँ. सांस सांस झर जाना चाहती हूँ.
लहर
हरहराती शोर मचाती
दूध सा उफान खाती
ताकत के गुरूर में उन्मुक्त
लहर ……,
भीतर एक स्वप्न पलता है
आहिस्ता से धरो कदम तुम
हौले-हौले से ही डोलो,
अस्तित्व
मेरा अस्तित्व मेरे साथ है
वो किसी के नाम का मोहताज नहीं
फिर मत कहना, समय रहते ... मैंने कहा नहीं !
एक रूहानी लकीर हूँ
यह बताना चाहती हूँ !
बन्द कर दो सारे दरवाज़े
दूरियों को नमन कर के, धीमे धीमे दौड़िये
साथ कोई दे, न दे , पर धीमे धीमे दौड़िये !
अखंडित विश्वास लेकर धीमे धीमे दौड़िये !
असली दुःख....
तुम दुखी हो !
नहीं लगता मुझे बिल्कुल ऐसा
अधूरा सच
मैं सत्य से अवगत हुआ
काँच की चूड़ियाँ
घोर रात में भी खनखनाती रही
पीर में भी मधुर गीत गाती रही ।
सफ़र जो आसान नहीं ...
बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना
प्रेरणापुंज कल्पना को नमन
लाजवाब थी वो
बेमिसाल थी वो
थी तो हरियाणा की
मग़र समूचे भारत की
मुस्कान थी वो,
******ग़ज़ल
चल पड़े राह तो मंज़िल पे नज़र रखना बस
इस तरह मील के पत्थर नहीं देखे जाते।
सभी के लिए
दीप जैसे जले रोशनी के लिए
भाव जैसे मुखर जिंदगी के लिए
आदरणीय ए.आर. रहमान जी
टीपें
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आज्ञा दें !
'एकलव्य'
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
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सभी छायाचित्र : साभार गूगल
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