कहते हैं पेड़ जितना अधिक फलों से लदा हो उतना ही झुकता है जिससे प्रत्येक भूखा व्यक्ति उसके अमृतस्वरूप फल को ग्रहण करने में सक्षम हो सके जैसे कि एक गुणी और विद्वान व्यक्ति। आज हम ऐसे ही एक 'बहुमुखी 'प्रतिभा के धनी शख़्स से आपका परिचय करवाने जा रहे हैं जो जितना ज्ञानवान
और लेखनी में पारंगत हैं उतना ही मृदुभाषी भी ।
आदरणीय 'विश्वमोहन ' जी
इस शानदार व्यक्तित्व का 'लोकतंत्र ' संवाद मंच
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में
हार्दिक स्वागत करता है और इनको साहित्य समाज में विशेष योगदान देने हेतु बधाई देता है।
आदरणीय 'विश्वमोहन' जी की एक रचना
पूरणमासी वित्तवर्ष की!
दूर क्षितिज के छोर पर
बंधी है सँझा रानी
रंभाती बांझीन गाय की तरह
आसमान के खूंटे से
वित् वर्ष की अंतिम पूरनमासी है जो!
पीये जा रहा है समंदर
बेतरतीब बादलों को , बेहिसाब!
लहराते लघुचाप में झमकती झंझावातें
गपक गप्प गपकती भंवरे
भूल चुक लेनी देनी है जो!
ताकता टुकुर टुकुर, टंगा चाँद
टोकरी में ढके सूरज को,
होगा 'अभिमन्यु-वध', फिर
डूबकी मारेगा रत्नाकर में,
करना है दिगंबर अम्बर को जो!
जोहते बाट, पथिक, पथराई आँखों से,
बांध बनने, पुल झुलने और डायवर्सन खुलने का
उंघती सोती सड़के तैयार, सरकने को नवजात अस्पताल तक,
होगी रेलम पेल फिर फाइल, सरपट भागती सवारियों से,
'विकास' के प्रसव की तिथि का उप 'संहार' है जो!
थामे पल्लू, पुलकित पलकों पे , घूँघट पट में,
ललचाये लोचन लावण्यमयी ललनाओं के.
'खुले में शौचमुक्त' होने का, गाँव के.
मिलेंगे तैयार, जाने तक, शौचालय संचिकाओं में.
होने हैं 'अपशिष्ट' निःशेष ,सँझा के खुलने तक जो!
हैं श्रमरत! दफ्तर में, सूरमे संचिकाओं के,
निपटाने में, व्यूह-दर-व्यूह रचनाओं को .
युद्ध-निपुण 'कर्ण'धारों के पराक्रम का कुटिल प्रहार.
लो, खेत रहा सौभद्र! और धंसा धरती में अर्थचक्र.
समर का, इस साल के, अवसान होना है जो!
मिला संकेत 'गुडाकेश' का! झांके, फिर डूबे! 'अंशुमाली'.
खुलकर फैली संझा, लगी चाँद-तारों की रखवाली
पसारे पाँव पूनम ने, मचाने लगा उधम, मनचला पवन!
पी रहे हैं, सब, छककर 'चांदनी' और काट रहे चांदी
दुधिया पूरनमासी है बीते वित्त वर्ष की जो!
भ्रम.....
यदि आप अंधकार में हैं
तो स्वयं आपको
अंधकार से बाहर निकलने का प्रयास करना पड़ेगा,
रोइंग में पार्टी
मायोदिया में मंजिल पर
पहुंच कर बर्फ दिखी जो सड़क के
दोनों किनारों पर जमी थी, पहाड़ों की
ढलान पर भी बर्फ थी और वातावरण में ठंड
बढ़ गयी थी. उन्होंने स्वेटर, दस्ताने, टोपी सभी कुछ
पहन लिए और फोटोग्राफी करते हुए बर्फ का आनन्द लिया.
बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है
समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर
गर्मी आने की आहट
इधर उधर भाग रहा है
मौसम
चबूतरे पर
पसरा पड़ा है
बेसुध सन्नाटा
"कॉपी-पेस्ट सन्त के नाम टेलीग्राम"
हे कॉपी-पेस्ट सन्त !!!
हे आधुनिक जगत के अवैतनिक दूत !!!
आपका समर्पण स्तुत्य है। सूर्योदय काल से
रात्रि नीम विश्राम बेला तक आपका परोपकारी
व्यक्तित्व, पराई पोस्ट को कॉपी-पेस्ट करते नहीं
थकता। इस व्यस्तता में आप स्वयं सृजन शून्य हो जाते हैं।
तन्हाई....
अपनी तन्हाई को
सीने में समेटे रहती हूँ
कभी हँस लेती हूँ
नीड़ से बेदखल होने वाले मां-बापों के हक़ में... एक कदम
आज इन पंक्तियों को जिस संदर्भ में मैंने
उद्धृत किया है, वह हमारे उन ''परित्यक्त-परिजनों'' से संबंधित है
सदियों का दर्द - -
वो सभी थे शामिल आधी
रात की साजिश में,
फूलों की ख़ुश्बू
पति पत्नी इक दूजे से पूरे होते हैं ---
मैसाज कराकर बॉडी का मन में हरियाली हो गई ,
मैसाज के चक्कर में पर म्हारी घरवाली खो गई।
मैं एकाकी कहाँ
ये तनहाइयाँ अब कहाँ डराती हैं मुझे !
क्योंकि अब
मैं एकाकी कहाँ !
प्रेम नगर अपवाद
सरपट दौड़ी रेलगाड़ी
छोड़ समय की डोर
"इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर"
इस भीड़ में निहायत अकेला हूँ मैं,
तेरे दामन में, मुझे बसर चाहिए।
अँगना नाचे मोर, गीत कोयल गाया
छाई काली घटा,सखी सावन आया
झूमें मोरा जिया,गगन बादल छाया
वर्तमान शिक्षा प्रणाली
कई साल बाद बच्चों की
शिक्षा व शिक्षा प्रणाली से पाला पड़ा.
कहाँ दूसरी कक्षा के बच्चे पराग, लोटपोट,
बालक, बालहंस, चंपक, चंदामामा, बालभारती
जैसे साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक बाल सुलभ पत्रिकाएँ (पुस्तक)
पढ़ते थे और कहाँ आज 5वीं के बच्चे को भी ककहरा सिखाने की नौबत आ रही है.
बंधी मुठ्ठी
रोज साथ रहते रहते
जाने क्यों मन मुटाव हुआ
आपस में बोलना छोड़ा
फुररगुद्दी (गौरइया)
करके सुना अँगना मेरा
कहाँ चली गई तुम..... फुररगुद्दी
आग है लगी हुयी
जिधर नज़र दौड़ायी
नज़र आया बस कूड़ा ही कूड़ा
कूड़े के ढेर पड़े हुए हैं
क्रोध.......
भीड़ बनकर
चाहतों के शहर
ख़्वाबों की गलियाँ
विध्वंस करते हुए
युवा जीवन की परिणति
चिरयुवा सा दमकता
एकाएक विलीन हो जाता है
तपती दोपहर में
जीत या हार ...
ये सच है वो होता है बस एक पल
बिखर जाने के बाद समेटने का मन नहीं होता जिसे
मज़ा
सुनो, सुन रहे हो ना
सुनो मेरा गीत जो आ जाता है होठों पर
सिर्फ दुम्हारे लिये ।
पतझड़
पत्ते पीले पड रहे हैं
और कमजोर भी
वे गिर रहे हैं एक एक कर
जैसे घटता है पल पल जीवन
कैक्टस...
एक कैक्टस मुझमें भी पनप गया है
जिसके काँटे चुभते हैं मुझको
और लहू टपकता है
चाहती हूँ
भोर का स्वप्न
अभी तुम्हारा ख्याल आया
और तुम आ गए
गहरी हैं आँखें तुम्हारी...
यूँ न देखा करो
प्यार पर बंदिशे नहीं होतीं
कहो यशोधरा
कहो यशोधरा
सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण के बाद
वह सुबह
तुम्हारे अंदर कैसे उतरी थी ?
एक नगमा जिन्दगी का
एक दरिया या समन्दर
बह रहा जो प्रीत बनकर,
बाँध मत बाँधें तटों पर
उमग जाये छलछलाकर
मूरखता का वरदान
समझदारी का पाठ पढ़
हम अघा गये भगवान
थोड़ी सी मूरखता का
अब तुमसे माँगे वरदान
“त्रिवेणियाँ”
बेटी के हाथों सिकी पहली
रोटी मां की थाली में है ।।
कीलों वाला बिस्तर
शायरों, कवियों की कल्पना में
होता था काँटों वाला बिस्तर,
चंगों ने बना दिया है अब
भाले-सी कीलों वाला
शाम के ढलते हीं.
ऐ रब, छीन ले मुझसे
मेरा हाफीजा,
इससे पहले की
हमेशा दिल की बात करना
तुम एक शायर हो ।
तुम्हें पता है ?
ना जाने
कितने लोगों का आसरा
तुम्हारा पता है ।
जीवन तो होम किया
कब दुख से घबराए
तानों के पत्थर
हरदम हमने खाए ।
किसलय
नव आशा के निलय से,
झांक रही वो कोमल किसलय,
इक नई दशा, इक नई दिशा,
तन्हाईयों में अक्सर
कहता है ये जमाना
झूठी है ये मोहब्बत
तन्हाई....
रूह तक पहुँचता एहसास ये रूमानी
नदिया की बहती ये नीरव रवानी
हौले से कुछ कह जाए..
आदरणीय 'विश्वमोहन' जी से विशेष साक्षात्कार
टीपें
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आदरणीय 'विश्वमोहन ' जी
इस शानदार व्यक्तित्व का 'लोकतंत्र ' संवाद मंच
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हार्दिक स्वागत करता है और इनको साहित्य समाज में विशेष योगदान देने हेतु बधाई देता है।
आदरणीय 'विश्वमोहन' जी की एक रचना
पूरणमासी वित्तवर्ष की!
दूर क्षितिज के छोर पर
बंधी है सँझा रानी
रंभाती बांझीन गाय की तरह
आसमान के खूंटे से
वित् वर्ष की अंतिम पूरनमासी है जो!
पीये जा रहा है समंदर
बेतरतीब बादलों को , बेहिसाब!
लहराते लघुचाप में झमकती झंझावातें
गपक गप्प गपकती भंवरे
भूल चुक लेनी देनी है जो!
ताकता टुकुर टुकुर, टंगा चाँद
टोकरी में ढके सूरज को,
होगा 'अभिमन्यु-वध', फिर
डूबकी मारेगा रत्नाकर में,
करना है दिगंबर अम्बर को जो!
जोहते बाट, पथिक, पथराई आँखों से,
बांध बनने, पुल झुलने और डायवर्सन खुलने का
उंघती सोती सड़के तैयार, सरकने को नवजात अस्पताल तक,
होगी रेलम पेल फिर फाइल, सरपट भागती सवारियों से,
'विकास' के प्रसव की तिथि का उप 'संहार' है जो!
थामे पल्लू, पुलकित पलकों पे , घूँघट पट में,
ललचाये लोचन लावण्यमयी ललनाओं के.
'खुले में शौचमुक्त' होने का, गाँव के.
मिलेंगे तैयार, जाने तक, शौचालय संचिकाओं में.
होने हैं 'अपशिष्ट' निःशेष ,सँझा के खुलने तक जो!
हैं श्रमरत! दफ्तर में, सूरमे संचिकाओं के,
निपटाने में, व्यूह-दर-व्यूह रचनाओं को .
युद्ध-निपुण 'कर्ण'धारों के पराक्रम का कुटिल प्रहार.
लो, खेत रहा सौभद्र! और धंसा धरती में अर्थचक्र.
समर का, इस साल के, अवसान होना है जो!
मिला संकेत 'गुडाकेश' का! झांके, फिर डूबे! 'अंशुमाली'.
खुलकर फैली संझा, लगी चाँद-तारों की रखवाली
पसारे पाँव पूनम ने, मचाने लगा उधम, मनचला पवन!
पी रहे हैं, सब, छककर 'चांदनी' और काट रहे चांदी
दुधिया पूरनमासी है बीते वित्त वर्ष की जो!
परिचय : आदरणीय विश्वमोहन जी
जन्मतिथि - १७ जनवरी १९६५, पौष पूर्णिमा
पिता का नाम- श्री मदन मोहन चौधरी, माता- श्रीमती(स्व०) शैल देवी.
पत्नी- श्रीमती पूनम मोहन (कवयित्री)
शिक्षा – इंटर (पटना साइंस कॉलेज), बी.ई. (आईआईटी, रुड़की)
एम .टेक(आईआईटी, मुंबई), एलएल. बी.(दिल्ली विश्वविद्यालय)
सम्प्रति – भारतीय इंजीनियरिंग सेवा
अधिशासी अभियंता,
सिविल निर्माण स्कंध, प्रसार भारती,
फेलो सदस्य - इंडियन इंस्टिच्युट ऑफ़ टेक्निकल आर्बिट्रेशन
मूल निवास –जोकहा, पश्चिमी चंपारण, बिहार
वर्तमान पता- डी1, सुमित्रा विला, मजिस्ट्रेट कॉलोनी, पटना/ 56 डी, जे एंड के पॉकेट, दिलशाद गार्डन, दिल्ली.
साहित्यिक परिवेश- आई आई टी रुड़की से प्रकाशित पत्रिका 'लायन', 'निर्माण', 'क्षितिज' और 'अकथ्य' का संपादन.
आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में साहित्यिक उपस्थिति.
प्रकाशित काव्य संग्रह- अँजुरी
ई-मेल- vishwamohan65@gmail.com
चलभाष- 08877938999
चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर
भ्रम.....
यदि आप अंधकार में हैं
तो स्वयं आपको
अंधकार से बाहर निकलने का प्रयास करना पड़ेगा,
रोइंग में पार्टी
मायोदिया में मंजिल पर
पहुंच कर बर्फ दिखी जो सड़क के
दोनों किनारों पर जमी थी, पहाड़ों की
ढलान पर भी बर्फ थी और वातावरण में ठंड
बढ़ गयी थी. उन्होंने स्वेटर, दस्ताने, टोपी सभी कुछ
पहन लिए और फोटोग्राफी करते हुए बर्फ का आनन्द लिया.
बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है
समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर
गर्मी आने की आहट
इधर उधर भाग रहा है
मौसम
चबूतरे पर
पसरा पड़ा है
बेसुध सन्नाटा
"कॉपी-पेस्ट सन्त के नाम टेलीग्राम"
हे कॉपी-पेस्ट सन्त !!!
हे आधुनिक जगत के अवैतनिक दूत !!!
आपका समर्पण स्तुत्य है। सूर्योदय काल से
रात्रि नीम विश्राम बेला तक आपका परोपकारी
व्यक्तित्व, पराई पोस्ट को कॉपी-पेस्ट करते नहीं
थकता। इस व्यस्तता में आप स्वयं सृजन शून्य हो जाते हैं।
तन्हाई....
अपनी तन्हाई को
सीने में समेटे रहती हूँ
कभी हँस लेती हूँ
नीड़ से बेदखल होने वाले मां-बापों के हक़ में... एक कदम
आज इन पंक्तियों को जिस संदर्भ में मैंने
उद्धृत किया है, वह हमारे उन ''परित्यक्त-परिजनों'' से संबंधित है
सदियों का दर्द - -
वो सभी थे शामिल आधी
रात की साजिश में,
फूलों की ख़ुश्बू
पति पत्नी इक दूजे से पूरे होते हैं ---
मैसाज कराकर बॉडी का मन में हरियाली हो गई ,
मैसाज के चक्कर में पर म्हारी घरवाली खो गई।
मैं एकाकी कहाँ
ये तनहाइयाँ अब कहाँ डराती हैं मुझे !
क्योंकि अब
मैं एकाकी कहाँ !
प्रेम नगर अपवाद
सरपट दौड़ी रेलगाड़ी
छोड़ समय की डोर
"इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर"
इस भीड़ में निहायत अकेला हूँ मैं,
तेरे दामन में, मुझे बसर चाहिए।
अँगना नाचे मोर, गीत कोयल गाया
छाई काली घटा,सखी सावन आया
झूमें मोरा जिया,गगन बादल छाया
वर्तमान शिक्षा प्रणाली
कई साल बाद बच्चों की
शिक्षा व शिक्षा प्रणाली से पाला पड़ा.
कहाँ दूसरी कक्षा के बच्चे पराग, लोटपोट,
बालक, बालहंस, चंपक, चंदामामा, बालभारती
जैसे साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक बाल सुलभ पत्रिकाएँ (पुस्तक)
पढ़ते थे और कहाँ आज 5वीं के बच्चे को भी ककहरा सिखाने की नौबत आ रही है.
बंधी मुठ्ठी
रोज साथ रहते रहते
जाने क्यों मन मुटाव हुआ
आपस में बोलना छोड़ा
फुररगुद्दी (गौरइया)
करके सुना अँगना मेरा
कहाँ चली गई तुम..... फुररगुद्दी
आग है लगी हुयी
जिधर नज़र दौड़ायी
नज़र आया बस कूड़ा ही कूड़ा
कूड़े के ढेर पड़े हुए हैं
क्रोध.......
भीड़ बनकर
चाहतों के शहर
ख़्वाबों की गलियाँ
विध्वंस करते हुए
युवा जीवन की परिणति
चिरयुवा सा दमकता
एकाएक विलीन हो जाता है
तपती दोपहर में
जीत या हार ...
ये सच है वो होता है बस एक पल
बिखर जाने के बाद समेटने का मन नहीं होता जिसे
मज़ा
सुनो, सुन रहे हो ना
सुनो मेरा गीत जो आ जाता है होठों पर
सिर्फ दुम्हारे लिये ।
पतझड़
पत्ते पीले पड रहे हैं
और कमजोर भी
वे गिर रहे हैं एक एक कर
जैसे घटता है पल पल जीवन
कैक्टस...
एक कैक्टस मुझमें भी पनप गया है
जिसके काँटे चुभते हैं मुझको
और लहू टपकता है
चाहती हूँ
भोर का स्वप्न
अभी तुम्हारा ख्याल आया
और तुम आ गए
गहरी हैं आँखें तुम्हारी...
यूँ न देखा करो
प्यार पर बंदिशे नहीं होतीं
कहो यशोधरा
कहो यशोधरा
सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण के बाद
वह सुबह
तुम्हारे अंदर कैसे उतरी थी ?
एक नगमा जिन्दगी का
एक दरिया या समन्दर
बह रहा जो प्रीत बनकर,
बाँध मत बाँधें तटों पर
उमग जाये छलछलाकर
मूरखता का वरदान
समझदारी का पाठ पढ़
हम अघा गये भगवान
थोड़ी सी मूरखता का
अब तुमसे माँगे वरदान
“त्रिवेणियाँ”
बेटी के हाथों सिकी पहली
रोटी मां की थाली में है ।।
कीलों वाला बिस्तर
शायरों, कवियों की कल्पना में
होता था काँटों वाला बिस्तर,
चंगों ने बना दिया है अब
भाले-सी कीलों वाला
शाम के ढलते हीं.
ऐ रब, छीन ले मुझसे
मेरा हाफीजा,
इससे पहले की
हमेशा दिल की बात करना
तुम एक शायर हो ।
तुम्हें पता है ?
ना जाने
कितने लोगों का आसरा
तुम्हारा पता है ।
जीवन तो होम किया
कब दुख से घबराए
तानों के पत्थर
हरदम हमने खाए ।
जब मैं तुमसे मिलूँगी,
तुमसे कुछ दूर बैठी
टकटकी लगाकर
निहारूँगी तुम्हें....
जिस पहर से पढने-
शहर गये हो -
तन्हाईयों से ये
घर आँगन भर गये हैं |
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने
मंगलवार को खाप पंचायत को
लेकर बड़ा फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट
ने खाप पंचायतों को झटका देते हुए कहा
कि शादी को लेकर खाप पंचायतों के फरमान गैरकानूनी हैं।
किसलय
नव आशा के निलय से,
झांक रही वो कोमल किसलय,
इक नई दशा, इक नई दिशा,
तन्हाईयों में अक्सर
कहता है ये जमाना
झूठी है ये मोहब्बत
तन्हाई....
रूह तक पहुँचता एहसास ये रूमानी
नदिया की बहती ये नीरव रवानी
हौले से कुछ कह जाए..
आदरणीय 'विश्वमोहन' जी से विशेष साक्षात्कार
टीपें
अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
'एकलव्य'
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा।
धन्यवाद।
सभी छायाचित्र : साभार गूगल
अतिसुन्दर संकलन
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