परसों अचानक मेरे फोन की घंटी बजी ! ट्रिन-ट्रिन......मैंने फोन रिसीव किया। उधर से कक्का जी हकलाए हुए लहजे में कहे जा रहे थे। अरे कलुआ ! कल मैं अखिल भारती कवि संगोष्ठी का आयोजन करने जा रहा हूँ। देश-विदेश से नामी-गिरामी धुरंधर लखनऊ में जमा होने जा रहे हैं तू भी कोई फनफनाता कविता लिख ले और संगोष्ठी में अवतरित हो जा कहते हुए फोन रख दिया। मैंने बहुत सोचा। लगभग एक हफ्ते का टाइम लाइन दिया गया था और मैंने कुछ लाइनें बस यूँ ही गढ़ दी।
दिए हुए लाइनों पर रचना बनानी थी
मन से उनके मन की बस खीर पकानी थी
तेज थी आंच विचारों के उन झुरमुट में
अब आप से क्या कहूँ !
बस यूँ ही अपनी भद्द पिटवानी थी।
कुछ हुए लाचार मेरी इन पंक्तियों पे
सांठ-गांठ थी कक्का की
आख़िर कह गए थे वे शब्दों के परदे से
कुछ न लिखूँ, ये जुर्रत नहीं मेरी
हफ़्ते भर में ही सही,एक अनूठी कविता बनानी थी।
रचना तो हो गई। अब बारी थी मंच पर बेहतरीन परफॉर्मेंस की सो पहुँच गया कक्का जी द्वारा आयोजित संगोष्ठी में। एक से एक धुरंधरों ने अपनी कविता का पाठ किया और वाहवाही लूटी। मेरा नम्बर भी आ ही गया और जैसे ही मैंने कविता पाठ प्रारम्भ किया उधर से आवाज आई।
अरे कवि महोदय ! किसकी डिमांड पर कविता लिख दी ? दूसरी तरफ से आवाज आयी अरे ! ओ ! ऑन डिमांड कविता लिखने वाले कवि। ये कैसी कविता लिख दी तूने !
मैंने जवाब दिया - अरे भाई ! सुनो मेरी सच्चाई। इस डिमांडिंग रचना से ही आपके बीच मैंने अपनी पक्की जगह बनाई।
एक बुजुर्ग कवि बोले ! कब तक बजाओगे ? उनके ऑन डिमांडिंग वाली शहनाई। जरा कुछ पेश करो अपने मन की कड़वी सच्चाई।
मेरे तो हाथ-पांव फूल गए इस ऑन डिमांडिंग रचना के चक्कर में और शर्म से मंच से नीचे उतर गया। कक्का जी ने नजरें नीची कर रक्खी थीं।
मेरे तो हाथ-पांव फूल गए इस ऑन डिमांडिंग रचना के चक्कर में और शर्म से मंच से नीचे उतर गया। कक्का जी ने नजरें नीची कर रक्खी थीं।
मैं मन ही मन शर्माता रहा
ख़्यालों में ही गोते खाता रहा
कक्का जी को लाख लानते भिजवाता रहा।
लज्जा से नजरें झुकाता रहा
उल्टे पाँव, अपने गंतव्य की ओर जाता रहा।
रचना धर्मिता की जय हो !
दो शब्द गौर फरमाईयेगा। .....
जिंदगी भर लिखते रहे हम
फ़रमाईशों पर उनकी, डूब कर
हफ़्ते दर हफ़्ते ,साल दर साल
कह न सके दो शब्द मन के अपने
नज़र-ए-इनायत है उनकी
माफ़ करिएगा !
यह ग़ज़ल है या नज़्म मालूम नहीं
वज़्न बराबर है या नहीं
रदीफ़ मिल रहा है बस
शब्दों की इनायत है
फिर कौन भला पूछता है ? नज़्म है कि ग़ज़ल
सच पूछिए तो ! केवल मेरे शब्दों की शिकायत है।
सच पूछिए तो ! केवल मेरे शब्दों की शिकायत है।
कुछ वाह ! शेर कहते हैं
कुछ को क्या लेना इनसे
बस धार है बहते रहो।
धकेलते रहो खाई में ,यहाँ कौन अपना है
वाह ! बहुत सुन्दर ! बेहतरीन के जुमलों से
चढ़ाते रहो झाड़ पे ,ये भी तो एक सपना है।
माफ़ करना आज ! कुछ ज्यादा ही हुआ।
तकलीफ़ तो होगी आईने से रूबरू होकर यूँ , ओ ! दुनिया वालों
क्योंकि, रात में हम ख़्वाब यूँ देखा नहीं करते।
लो ! लिख दिया मैंने भी एक शेर,अब कहिए क्या शेर है।अरे !क्या हुआ ? कहते क्यूँ नहीं ? वाह क्या शेर है ! चढ़ाओ भाई झाड़ पे
हम भी बैठे हैं तैयार से
हा ......हा ....हा ..... !
लो ! लिख दिया मैंने भी एक शेर,अब कहिए क्या शेर है।अरे !क्या हुआ ? कहते क्यूँ नहीं ? वाह क्या शेर है ! चढ़ाओ भाई झाड़ पे
हम भी बैठे हैं तैयार से
हा ......हा ....हा ..... !
ख़ैर छोड़िए ! क्या रक्खा है
इन शब्दों के बीन बजाने में।
चेतावनी : प्रस्तुत व्यंग के प्रत्येक शब्द मेरे हैं। आप इससे सहमत हों यह आवश्यक नहीं। यह मेरे स्वतंत्र विचार हैं न कि किसी और के, अतः मुझपर किसी भी प्रकार के कॉपी-पेस्ट के आरोप न लगायें।
गुस्ताख़ी माफ़ हो !
इसी आशा के साथ मिलिए हमारे विशिष्ठ अतिथि रचनाकार से
चेतावनी : प्रस्तुत व्यंग के प्रत्येक शब्द मेरे हैं। आप इससे सहमत हों यह आवश्यक नहीं। यह मेरे स्वतंत्र विचार हैं न कि किसी और के, अतः मुझपर किसी भी प्रकार के कॉपी-पेस्ट के आरोप न लगायें।
गुस्ताख़ी माफ़ हो !
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आदरणीय प्रबोध कुमार 'गोविल' जी
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला की इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।
परिचय
नाम : आदरणीय प्रबोध कुमार गोविल
जन्मतिथि: 11 जुलाई, 1953
जन्मस्थान: अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: एम.कॉम (आर्थिक प्रशासन व वित्तीय प्रबंध), पत्रकारिता में डिप्लोमा
सम्प्रति: पूर्व प्रोफ़ेसर एवं निदेशक, संचार व पत्रकारिता निदेशालय, ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय, जयपुर
प्रकाशित कृतियाँ:
1. देहाश्रम का मनजोगी (1982, 2007, 2012, उपन्यास), 2. अपना बोझा अपने कंधे (1982, निबंध) , 3. अन्त्यास्त (1983, कहानी संग्रह), 4. बेस्वाद मांस का टुकड़ा ( 1985, उपन्यासिका व कहानी संग्रह), 5. मेरी सौ लघु कथाएँ (1986, लघुकथा संग्रह) , 6. रक्कासा सी नाचे दिल्ली (1990, व्यंग्य कविता), 7. वंश (1991, उपन्यास), 8. रेत होते रिश्ते (1992, उपन्यास), 9. आखेट महल (1995, उपन्यास), 10. शेयर खाता खोल सजनिया (1996, व्यंग्य कविता), 11. सेज गगन में चाँद की (1996, उपन्यास), 12.मेरी ज़िन्दगी लौटा दे (1997, नाटक) , 13. याद रहेंगे देर तक (2002, सम्पादित निबंध), 14.सत्ता घर की कन्दराएँ (2003, 2008, 2011, कहानी संग्रह), 15. उगते नहीं उजाले (2003, बाल साहित्य),16. अज़ब्नार्सिस डौट कॉम (2005, नाटक, हिंदी/अंग्रेजी/संस्कृत), 17. रस्ते में हो गयी शाम (2006, संस्मरण) , 18. The Redolence of Love (2007, Short Stories)। 19. थोड़ी देर और ठहर (2012,कहानी संग्रह) 20॰ उगती प्यास दिवंगत पानी(2013) 21. जल तू जलाल तू (2013) 22. "हॉर्मोनल फेंसिंग"[कहानियों का अंग्रेजी रूपांतर, 2014], 23. "खाली हाथ वाली अम्मा"[कहानी संग्रह, 2014], 24. "जल तू जलाल तू" का पंजाबी, उर्दू,सिंधी[अरबी],असमिया अनुवाद तथा "बियोंड द वॉटर" शीर्षक से अंग्रेजी रूपांतरण [2014], 25. पड़ाव और पड़ताल-खंड 8 [सम्पादित लघुकथा संग्रह 2015]
सम्मान व पुरस्कार:
1. पत्रकारिता में अखिल भारतीय स्वर्ण पदक, मुंबई, 1980;
2. पुस्तक 'अपना बोझा अपने कंधे' की पाण्डुलिपि को मध्य प्रदेश सरकार का पुरस्कार, 1980; 3.साहित्य संगम, इंदौर का प्रथम पुरस्कार, 1986; 4. उपन्यास 'आखेट महल' को मांडवी प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा 5000 रु. का पुरस्कार, 1995; 5 . उपन्यास 'आखेट महल' को अभियान, जबलपुर द्वारा 5000 रु. का पुरस्कार, 1995; 6. 'मेरी ज़िन्दगी लौटा दे' को महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी का प्रेमचंद पुरस्कार, 1998; 7. अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा सम्मलेन, गाज़ियाबाद का राष्ट्रभाषा संरक्षक सम्मान, 1999; 8. समरसता स्वर्ण पदक, दिल्ली, 2000; 9. अखिल भारतीय स्वत्रन्त्र लेखक मंच द्वारा सरस्वती सम्मान, 2001; 10. अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति, मथुरा द्वारा कविवर मैथिली शरण गुप्त सम्मान, 2001;11. अक्षरधाम समिति, हरियाणा द्वारा अक्षर भूषण सम्मान, 2002; 12. दिव्य रजत अलंकरण, सागर, मध्य प्रदेश, 2004; 13. हम सब साथ साथ द्वारा लाइफ़टाइम अचीवमेंट सम्मान, 2004; 14. अखिल भारतीय साहित्यकार कल्याण संस्थान, रायबरेली, उत्तर प्रदेश द्वारा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान, 2004; 15. जैमिनी अकादमी, पानीपत का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार, 2005; 16. द्वितीय अखिल भारतीय डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर साहित्य रत्न पुरस्कार, 2005; 17. साहित्य व् सांस्कृतिक अकादमी, इलाहबाद का हिंदी गरिमा सम्मान, 2006; 18. राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान समारोह, अल्मोड़ा उत्तरांचल में साहित्य श्री सम्मान, 2006; 19. अखिल भारतीय साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा साहित्य दिवाकर उपाधि, 2006; 20. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा रु. 20,000 का सूर पुरस्कार, 2007; 21. पुष्पगंधा प्रकाशन, कवर्धा, छत्तीसगढ़ द्वारा साहित्य रत्न पुरस्कार, 2008 22. अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 'सरोजिनी कुलश्रेष्ठ अखिल भारतीय पुरस्कार' [रु. 10,000](2012)—‘थोड़ी देर और ठहर’ के लिए 23. तुलसी मानस संस्थान, जयपुर का सम्मान (2012) 24. अखिल भारतीय साहित्य परिषद का रामेश्वर शुक्ल सम्मान (2013)—‘जल तू जलाल तू’ के लिए 25. "सीरिया का बटुआ" कहानी पर राजस्थान पत्रिका वर्ष 2014 का रु. 21,000 का प्रथम पुरस्कार 26."कादंबरी, जबलपुर"का नर्मदा प्रसाद खरे कहानी सम्मान [रु॰ 1100] वर्ष 2014
पता: बी - 301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी, 447, आचार्य कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर - 302004 (भारत)
ईमेल: prabodhgovil@gmail.com
एक कहानी आदरणीय 'प्रबोध कुमार गोविल' जी की कलम से। .......
उगते नहीं उजाले ......
लाजो आजसुबह सेही बहुत उदास थी। उसका मन किसी भी काम में न लग रहा था। वह चाहती थी कि अपने दिलकीबात किसी न किसी को बताये, तो उसका बोझ कुछ हल्का हो। लाजो लाजवंती लोमड़ी का नाम था।
संयोग से थोड़ी ही देर में बख्तावर खरगोश उधर आ निकला। वह शायद किसी खेत से ताज़ी गाज़र तोड़ कर लाया था जिसे पास के तालाब पर धोने जा रहा था।
बख्तावर के बच्चे बहुत छोटे थे। वह उन्हें मिट्टी लगी गाज़र न खिलाना चाहता था। इसीलिए जल्दी में था। पर लाजवंती लोमड़ी को मुंह लटकाए बैठे देखा, तो उससे रहा न गया। झटपट पास चला आया, और बोला- अरे लाजो बुआ, ये क्या हाल बना रखा है! तुम इस तरह शांति से बैठी भला शोभा देती हो! क्या तबीयत खराब है?
लाजो ने बख्तावर को देखा तो झट खिसक कर पास आ गई। बोली, तबीयत खराब क्यों होगी। पर आज जी बड़ा उचाट है। क्या बताऊँ, आज सुबह-सुबह मुझे न जाने क्या सूझी कि मैं घूमती- घूमती जंगल से बाहर निकल कर पास वाली बस्ती में पहुँच गई। वहां एक पार्क था। लोग सैर-सपाटा कर रहे थे। बच्चे खेल रहे थे।सोचा, मैं भी थोड़ी देर ताज़ी हवा खा लूं। मैं एक झाड़ी की ओट में छिपने जाने लगी कि तभी मैंने बच्चों की आवाज़ सुन ली। शायद उन्होंने मुझे देख लिया था। एक बच्चा बोला- अरे, अरे, वो देखो, चालाक लोमड़ी। कहाँ भागी जा रही है। तभी दूसरा बच्चा बोला- शायद यहाँ के अंगूर खट्टे होंगे, इसीलिए जा रही है। बस भैया, मेरा पारासातवें आसमान पर पहुँच गया। अब तुम्हीं बताओ , भला मैंने क्या चालाकी की थी उन बच्चों के साथ? और अंगूर की बात यहाँ बीच में कहाँ से आ गई?
बख्तावर जोर-जोर से हंसने लगा। बोला- अरे बुआ, तुम तो बड़ी भोली हो। बच्चे पंचतंत्र के ज़माने से ही हमारी कहानियां सुन-सुन कर हमें जान गए हैं न. सो जैसा उन्होंने सुना, वैसा कह दिया। लोमड़ी बोली- पर यह कितनी गलत बात है। सत्यानाश हो इस मुए पंचतंत्र का, जिसने हमारी छवि बिगाड़ कर रख दी है। युग बीत गए पर ये इंसान आज भी हमें वैसाकावैसा ही समझते हैं। अरे ये खुदभी तो तब से इतना बदले हैं, तो क्या हम नहीं बदल सकते। हमें अभी तक सब बुरा ही समझते हैं। चाहे जो हो जाए, मैं तो यह सब नहीं सह सकती।
-पर तुम करोगी क्या बुआ। अकेला चना क्या भाड़ फोड़ सकता है।
-बेटा, एक और एक ग्यारह होते हैं। तू मेरा साथ दे फिर देख, मैं कैसे सबकी अक्ल ठिकाने लगाती हूँ। मैं ऐसाकाम करुँगी कि धीरे-धीरे सब जानवरों की छवि बदल कर रख दूंगी, ताकि कोई हमारे जंगल पर अंगुली न उठा सके। बोल, तू मेरा साथ देगा न ?
-बुआ साथ तो मैं दे दूंगा, पर देखना कहीं ज्यादाचालाकी मत करना, वरना लोग कहेंगे- वो आई चालाक लोमड़ी।बख्तावर यह कह कर हंसने लगा।
-चल हट, शरारती कहीं का। मेरा मजाक उड़ाता है।मैंने तो समझा था कि तू ही समझदार है, तू मुझे कोई ऐसा रास्ता बतायेगा जिससे मैं सबका भला कर सकूं।
बख्तावर गंभीर हो गया। बोला- अरे, अरे, तुम तो नाराज़ होने लगीं। मैं तुम्हें उपाय बताता हूँ, सुनो। तुम ऐसा करो कि एकांत में बैठ कर , अन्न-जल छोड़ कर तपस्या करो। तप करने से देवी-देवता प्रसन्न होते हैं, और वे खुश होकर मनचाहा वरदान दे देते हैं। जब देवी-देवता प्रसन्न हो जाएँ तो तुम उनसे कह देना कि तुम सब पशु-पक्षियों की छवि सुधारना चाहती हो, वो ज़रूर तुम्हारी मदद करेंगे।
लाजो की आँखें एक पल को चमकीं , लेकिन फिर वह बोली- पर देवी-देवता हम जानवरों की क्यों सुनेंगे। उनकी पूजा तो सैंकड़ों इंसान करते रहते हैं। -ओ हो बुआ, तुम भी अजीब हो। हम इंसानों के देवी-देवताओं की पूजा क्यों करेंगे, हमारे अपने भी तो देवता हैं।
-सच! ये तो मुझे मालूम ही न था। कौन से हैं वे?
बख्तावर बोला- वे भी इंसानों के देवताओं केसाथ देवलोक में ही रहते हैं।
-क्यों मज़ाक करता है? लाजो फिर बुझ गई।
-अरे मैं मज़ाक नहीं कर रहा बुआ ! तुम्हें पता है...इंसानों के देवी-देवता सब अपना कोई न कोई वाहन रखते हैं। लक्ष्मी के पास उल्लू है, सरस्वती के पास हंस है, गणेश के पास चूहा है, दुर्गा शेर पर बैठती हैं। बस, ये सब पशु-पक्षीहमारे देवता ही हुए न. हमारे ये साथी देवताओं से कम महिमामय थोड़े ही हैं। तुम इन्हें पुकार कर तो देखो, ये अवश्य आयेंगे। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होंगे। यह कह कर बख्तावर तालाब की ओर बढ़ गया।
लाजवंती की आँखें ख़ुशी से चमकने लगीं।
बस, लाजो ने वहीँ धूनी रमा ली। न खाना, न पीना, दिनरात तपस्या करने लगी। आँखें बंद कीं ,और जपने लगी- "लक्ष्मीवाहन जयजयकार , गणपतिमूषक यहाँ पधार".
कई दिन तक भूखी-प्यासी लाजो तप में लीन रही , और एक दिन उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक विशालकाय चूहा वहां अवतरित हुआ।
- आँखें खोलो बालिके!
लाजो के हर्ष का पारावार न रहा। मूषकराज को देख कर वह हर्ष विभोर हो गई। वह ये भी भूल गई कि वह कई दिन की भूखी-प्यासी है। उसकी दृष्टि मूषकराज से हटती ही न थी। चूहे ने कहा, हम तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हुए। मांगो, तुम्हें क्या माँगना है?
-भगवन, मैं एक अभागन लोमड़ी हूँ। वर्षों से सभी मुझे चालाक, धूर्त और मक्कार समझते हैं। मुझे ऐसा वरदान दीजिये, कि मेरी दृष्टि निर्मल हो जाये। मुझे भी सब आदरणीय मानें, सब मेरी इज्ज़त करें।
मूषकराज बोले- बहुत अच्छा विचार है। किन्तु देवी, इस युग में बिना श्रम किये किसी को कुछ मिलने वाला नहीं है। केवल भक्ति, चापलूसी या सिफारिश से काम नहीं चलने वाला। तुम्हें स्वयं इसके लिए एक उपाय करनाहोगा।
- वो क्या भगवन !
- तुम्हें सभी जंगल-वासियों के बीचबारी-बारी से जाना होगा। उनकी सेवा करनी होगी। सब पशु-पक्षियों पर खराब छवि का जो कलंक लगा है, उसे मिटाना होगा। तब तुम्हारी छवि स्वयं पावन और स्वच्छ हो जायेगी। सब तुम्हें सराहेंगे, तुम्हारा सम्मान करेंगे। हाँ, किन्तु यह ध्यान रखना, कि उनके पास से लौटते समय रास्ते में कोई गीत तुम बिलकुल मतगाना, नहीं तो तुम्हारा सारा तप निष्फल हो जाएगा। तथास्तु !
यह कह कर चूहा पास के एक बिल में समा गया।लाजो ने मन ही मन यह निश्चय किया कि वह कल से रोज़ किसी न किसी जीव - जंतु के पास जाएगी और सेवा व त्याग से उसकी छवि को निखारने की कोशिश करेगी। उसने मन ही मन इस बात की भी गांठ बाँध ली कि कुछ भी हो जाए, उसे किसी भी कीमत पर गाना नहीं गाना है।
उसने सोचा कि वह अगली सुबह सबसे पहले "फितूरी कौवे" से मिलने जायेगी। फितूरी तमाम जंगल में बहुत बदनाम था। उसकी छवि अच्छी नहीं थी।
लाजो ने उस रात भरपेट भोजन किया , और आराम से सोने के लिए अपनी मांद में चली गई।
लाजो की आँख आज पौ-फटते ही खुल गई।
उसने मन ही मन एकबार भगवन मूषकराज का स्मरण किया और हाथ-मुंह धोने तालाब पर चली आई।
आज उसे फितूरी कौवे से मिलने जाना था। वह सुन चुकी थी कि फितूरी को लोग अच्छा नहीं समझते थे। वह जहाँ भी जाता , दूर ही से उसे देख कर शोर मच जाता, कि आ गया काना फितूरी, सब छिपा लो खीर-पूड़ी।
सब समझते थे कि फितूरी खाने-पीने का बेहद शौक़ीन है। और सारा माल मुफ्त में खाना पसंद करता है। वह जिस किसी को कुछ भी खाते देखता, उसी से खाना छीन-झपट कर उड़ जाता। इतना ही नहीं, बल्कि लोग कहते थे कि उसकी आँखों में एक ही पुतली है।उसी को मटकाता हुआ वह कभी इधर देखता, कभी उधर। इसी से सब उसे काना कहते थे।
लाजो ने सोचा कि जब वह फितूरी से मिलने जाएगी तो उसके लिए बढ़िया-बढ़िया , तरह-तरह का खाना बना कर ले जाएगी। आज वह उसे जी-भर कर खाना खिला देगी। वह खाने से इतना तृप्त हो जायेगा कि फिर वह किसी से छीन कर खाना भूल ही जायेगा।फिर सब कहेंगे कि फितूरी रे फितूरी सुधर गया, माल उड़ाना किधर गया?
मन ही मन लाजो ने सोचा कि फिर फितूरी मेरी प्रशंसा करेगा। और खुश होकर मुझे दुआएं देगा। लोग उसे भी बुरा नहीं कहेंगे।
यह सब सोचती लाजो तैयार होकर अपनी रसोई में आई।
मगर लाजो तो ठहरी लाजो ! भला इतना खाना वह कैसे बनाती। उसने तो आजतक अपने लिए खाना अपने हाथ से न बनाया था। सदा यहाँ-वहां सूंघती , चखती ही अपना पेट भरती रही थी। उसके लिए भोजन बनाना बड़ा ही मुश्किलकाम था। और दूसरों के लिए भोजन तैयार करना, ये तो उसके खानदान में कभी किसी ने न किया था। उसके पुरखे तो अपने पूर्वजों का श्राद्ध तक दूसरों के घर मनाते आये थे।
उसने सोचा, जैसे आजतक निभी है, आगे भी निभेगी। जिसने आलस दिया है वही रोटी भी देगा।
वह किसी ऐसे शिकारकीतलाश में निकल पड़ी, जो उसे तो भोजन खिला ही दे, साथ में फितूरी के लिए भी टिफिन में भरकर भोजन देदे।
वह ऐसे सोच में डूबी चली जा रही थी कि उसे एक तरकीब सूझ गई। उसे मालूम था कि भालू मधुसूदन इस समय अपने घर में नहीं होता। वह शहद इकठ्ठा करने के लिए दोपहरी में जंगल की खाक छानता रहता है। वह अपने घर पर कभी ताला लगाकर भी नहीं रखता था।और सबसे मजेदार बात तो यह थी कि उसके घर में खाने-पीने की तरह-तरह की चीज़ें हमेशा रहतीथीं। आलसी जो ठहरा। क्या पता कब जंगल न जाने की इच्छा हो जाये, और घर बैठे-बैठे खाकर ही काम चलाना पड़े।
बस फिर क्या था, लाजो ने मधुसूदन के घर की राह पकड़ी। सचमुच चारों ओर कोई न था। मधुसूदन की रसोई में घुस कर लाजो ने छक कर शहद पिया।फिर उसी के यहाँ से एक छोटा बर्तन ले, फितूरी के लिए भी शहद भर लिया। साथ में कुछ मीठे शहतूत भी रखना न भूली, जिन्हें मधुसूदन कल ही रामखिलावन बन्दर से झपट कर लाया था।
अब लाजो खुश थी। उसने फितूरी के घर की राह पकड़ी। दोपहर का समय था।चारों ओर तेज़ लू चल रही थी। ऐसे में भला फितूरी जाता भी कहाँ। वहीँ था। जिस पेड़ पर फितूरी रहता था, उसी के नीचे पहुँच लाजो ने दम लिया। उसी पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर बुज़ुर्ग मिट्ठू प्रसाद रहते थे। उम्र थी लगभग सौ वर्ष। दांत तीन बार झड़ कर चौथी बार आ चुकेथे। चेहरे पर झुर्रियां इतनी थीं कि सारा हरा रंग मटमैली दरारों में भीतर चला गया था। फितूरी से पड़ौसी होने के नाते अच्छा भाईचारा था।उन्होंने लाजवंती लोमड़ी को पेड़ के नीचे देखा तो उनका माथा ठनका। उन्हें अपने बचपन में देखी वहघटना याद आ गई, जब धूर्त लोमड़ी ने गाना सुन ने के बहाने कौवे से रोटी झपट ली थी। वे शायद पंचतंत्र के दिन थे।
वे आवाज़ लगाकर फितूरी को सावधान करने ही वाले थे कि उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। लाजो के हाथ में टिफिन था, और वह आवाज़ लगा कर फितूरी को दावत खाने का न्यौता दे रही थी। फितूरी चकित था पर नीचे आकर दमादम खाना खाने लगा।शायद कई दिन का भूखा था। पेट भरते ही डकार लेकर बुआ का शुक्रिया अदा करना न भूला।
ख़ुशी से झूमती लाजो लौट रही थी। दूसरों को खिलाने में कितना सुख है, यह उसने आज जाना था।
उसे मन ही मन यह सोच कर अपार ख़ुशी हो रही थी कि अब जल्दी ही सभी लोग उसके उपकारों की चर्चा करने लगेंगे और उसकी छवि जंगल भर में अच्छी हो जाएगी। उसे अपनी तपस्या का फल जल्दी मिल जाने की पूरी उम्मीद हो चली थी।
लाजो का मन हो रहा था कि उसके पंख लग जाएँ और वह यहाँ-वहां उड़तीफिरे।उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।
अचानक लाजो ने एकपतली सी आवाज़ सुनी। वह चौकन्नी होकर यहाँ-वहां देखने लगी। उसे कोई दिखाई न दिया।
शायद उसे कोई भ्रम हुआ हो, यह सोच कर वह आगे बढ़ गई। पर थोड़ी ही देर में उसे वही आवाज़ फिर सुनाई दी। नहीं,नहीं, यह भ्रम नहीं हो सकता। अवश्य आसपास कोई है, यह सोच कर वह ठिठक कर खड़ी हो गई।आवाज़ बड़ी पतली थी, और कहीं पास से ही आ रही थी। लाजो ने ध्यान से सुन ने की कोशिश की। कोई बड़ी मस्ती में गा रहा था-
" जो औरों के आये काम, उसका जग में ऊंचा नाम
बोलो क्या कहतेहैं उसको, कौन बताये उसका नाम?"
लाजो ने सुना तो झूम उठी। लाजो ऊंची आवाज़ में गाकर बोली-
"जो औरों के आये काम, उसका जग में ऊंचा नाम
सारे उसको लाजो कहते, लाजवंती उसका नाम"
लाजो अभी झूम-झूम कर गा ही रही थी, कि उसके कान में सुरसुरी होने लगी। और तभी कान से एक छोटा सा झींगुर कूद कर बाहर निकला।झींगुर तुरंत लाजो के सामने आया और बोला- बुआ , पहचाना मुझे ! मैं हूँ दिलावर, बख्तावर का दोस्त ! अरे बुआ जी , आप तो बड़ा मीठा गाती हो !
-सच ! कहीं झूठी तारीफ तो नहीं कर रहा? लाजो शरमाती हुई बोली।
-लो, मैं भला झूठी तारीफ क्यों करने लगा। पर बुआ, झूठा तो वो मेरा दोस्त बख्तावर है, कहता था कि अब लाजो बुआ कभी गाना नहीं गाएगी। उसने तप करके वरदान पाया है।
लाजो अचानक जैसे आसमान से गिरी। ये क्या हुआ ! उसे तो गाना गाना ही नहीं था। अब तो उसे मिला वरदान निष्फल हो जायेगा। वह निराश हो गई। पर अब क्या हो सकता था, जब चिड़िया खेत चुग गई। रोती -पीटती लाजो घर आई। उसने सोचा कि वह इस तरह हार कर नहीं बैठेगी। उसने अगले दिन बड़े तालाब पर जाने का निश्चय किया जहाँ बसंती और दलदली घोंघे रहते थे।
लाजो ने हठ न छोड़ा। उसने मन ही मन ठान लिया किवह अब इन अंगूरों को खट्टे समझ कर दूर ही से नहीं छोड़ेगी, और इन्हें किसी भी कीमत पर चख कर ही रहेगी। उसने कठिन तपस्या करके वरदान पाया था। एक बार उससे चूक हो भी गई तो क्या, वह दोबारा कोशिश करेगी। यह सोच कर वह तैयार होने लगी। आज लाजो को बड़े तालाब पर जाना था। वहां बसंती और दलदली घोंघे रहते थे। दोनों भाई बेचारे बड़े मासूम थे। पर न जाने कब से लोगों ने दोनों ही को फ़िज़ूल बदनाम कर रखा था। तालाब के सब प्राणी दोनों का इतना मजाक उड़ातेथे किकिसी भी सुस्त और बुद्धू प्राणी को सब घोंघा बसंत ही कहने लगे थे। अब दलदल में रहने वाले तेज़ तो चल नहीं सकते थे, पर लोग थे कि बेबात के बेचारों की चाल का मजाक उड़ा कर मिसाल देते थे। किसी भी धीमे चलने वाले को देख कर कहते, क्या घोंघे की चाल चल रहा है। यहाँ तक कि कोई-कोई तो उन्हें ढपोरशंख कहने तक से न चूकता। यह हाल था जंगल भर में उनकी छवि का।
लाजो को आज उनसे मिलना था। वह चाहती थी कि उनकी बिगड़ी छवि को सुधारे। लाजो ने रात को ही सब तय कर लिया था। उसने सोचा था कि वह बसंती और दलदली दोनों भाइयों के लिए ऐसे जूते लेकर जाएगी जिन्हें पहन कर वे तेज़ चाल से चलने लगें। आजकल बच्चों में पहिये वाले 'स्केटिंग जूते' बड़े लोकप्रिय थे। इन्हें पहन कर बच्चे हवा से बातें करते थे। लाजो बसंती और दलदली के लिए ऐसे ही जूते तलाशने की फ़िराक में थी।
आज लाजो ने हल्का नाश्ता ही लिया था। उसे पूरी उम्मीद थी कि बसंती और दलदली उसके उपकार से खुश होकर उसे कम से कम भरपेटभोजनतो करवाएंगे ही। बड़े तालाब की मछलियों की महक याद करके लाजो के मुंह में पानी भर आया।
अब लाजो इस उधेड़-बुन में थी कि ऐसे जूते कहाँ से हासिल करे। बाज़ार में कोई उसे एक पैसा भी उधार देने वाला न था। शू -पैलेस वाली बकरी अनवरी तो उसे दूर से देखते ही दुकान का शटर गिरा लेती थी।
लाजो को सहसा अपनी वनविहार वाली सहेली मंदोदरी का ख्याल आया। हिरनी मंदोदरी के यहाँ अभी कुछ दिन पहले ही पुत्र का जन्म हुआ था। मन्दू अवश्य ही उसके लिए तरह-तरह के जूते लाई होगी, लाजो ने सोचा। हिरनी को अपनेबेटे को तेज़ दौड़ना जो सिखाना था। लाजो मन ही मन प्रसन्न होती मन्दू के घर की ओर चलदी। छोटे बच्चों के जूते-कपड़े छोटे भी तो जल्दी-जल्दी हो जाते हैं, तो भला दो जोड़ी छोटे-छोटे जूते देने में मन्दू को क्या ऐतराज़ होता। मन्दू ने बेटे के स्केटिंग जूते लाजो को दे दिए।
जूते पाते ही लाजो ने एक पल भी वहां गंवाना उचित न समझा। वह तेज़ क़दमों से बड़े तालाब की ओर चल दी। बसंतीऔर दलदली ऐसाअनूठा उपहार पाकर फूले न समाये।उन्होंने झुककर लाजो बुआजी के पैर छुए, और उनसे खाना खाकर ही जाने की जिद करने लगे।
खा पीकर लाजो जब घर लौटने लगी, दोपहर ढल रही थी।लाजो का सर गर्व से तना हुआ था।आज उसने दोनों बच्चों पर उपकार किया था।अब किसी की हिम्मत न थी कि उन्हें धीमी चाल से चलने वाला कह सके।बुआ के दिए जूते जो उनके पास थे।
वह ऐसा सोच ही रही थी कि उसका ध्यान सामने गया। एक पेड़ के नीचे काफी भीड़ इकट्ठी थी।लाजो से रहा न गया।वह भी भीड़ को चीरती पेड़ के नीचे पहुँच गई। देखा तो ख़ुशी से पागल हो गई।बसंती और दलदली दोनों अपने स्केटिंग वाले जूते पहनकर दौड़ते हुए तालाब से यहाँ तक आ गए थे, और सबको अपने जूते दिखा रहे थे।सब हैरानी से दोनों को दौड़ते-भागते देख रहे थे।
तभी पेड़ केतने से आवाज़ आई-
"धीमी चाल छोड़कर सरपट, भागें अपने घोंघा राम
किसने इनको ताकत दीये, बोलो-बोलो उसका नाम "
सबके सामने अपने गुणगान का ऐसा मौका लाजो भला कहाँ चूकने वाली थी ? झट बोल पड़ी-
"निर्बल को ऐसा बल देकर, जिसने किया अनोखा काम
सारे उसको लाजो कहते, लाजवंती उसका नाम"
लाजो का गीत सुनते ही पेड़ के तने की एक छोटी सीखोह से कूदकरदिलावर झींगुर बाहरआ गया।बोला- बुआ आदाब अर्ज़ !
-अरे दिलावर तू यहाँ कैसे?
-बस बुआ, मैं तो यहाँ बैठा था कि तुम्हारा गाना सुना।मैं झट बाहर निकला।मैंने सोचा, ये लाजो बुआ तो हो ही नहीं सकतीं।उन्होंने तो गाना गाना छोड़ ही रखा है। भई, भारी जप-तप वाली जो ठहरीं।
लाजो का माथा ठनका।आज फिरउसका तप भंग हो गया था।वह फिर गीत गा बैठी थी।लाजो मुंह लटकाए घर की ओर चल दी।शाम घिर रही थी।
लाजो ने हठ न छोड़ा।अगली सुबह उसकी आँखों में फिर से आशा की किरण चमक उठी।उसने सुन रखा था कि 'गीता' में भी यही कहा गया है -कर्म ही प्रधान है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।लाजो ने मूषकराज से जो वरदान पाया था, वह कड़ी तपस्या के बाद मिला था।लाजो उसे ऐसे ही व्यर्थ न जाने देना चाहती थी।
उसने सोचा, ऐसे निराश होकर बैठ ने से काम नहीं चलेगा।उसे आज फिर बाहर जाकर किसी न किसी की मदद करनी चाहिए, ताकि किसी की बिगड़ी छवि सुधर सके।
आज लाजो लोमड़ी को ध्यान आया बरगद के पेड़ पर रहने वाली कोयल नूरजहाँ का।नूरी कितना मीठा गाती थी। बरगद के पेड़ पर तो बस उसका घर था।वह तो सुबह होते ही चहकती-फुदकती आमों के बाग़ में आ जाती, और आमों जैसे ही मीठे रसीले गीत सबको सुनाया करती।लोग कहते, भई गला हो तो कोयल नूरी सा।
पर वही लोग पीठ -पीछे कहते, ये नूरजहाँ कितनी काली- कलूटी और कुरूप है।उसकी छवि जंगल- भर में एक बदसूरत गायिका की थी।
खुद लाजो ने पहले कई बार नूरी का मज़ाक उड़ाया था।पर अबला जो खुद को बदलना चाहती थी।वह चाहती थी कि वह किसी तरह नूरी की मदद करे ताकि उसकी छवि बदल जाए और लोग उसके रंग-रूप के बारे में छींटा -कशी न कर सकें।
लाजो ने ठान लिया कि वह आज नूरजहाँ के पास ही जायेगी।वैसे भी नूरी को उसने बड़े दिन से देखा न था।वह नहा-धोकर जल्दी से निकलने की तैयारी में जुट गई।
लाजो को खूब मालूम था कि शहरों में ब्यूटी-पार्लर होते हैं।वह जानती थी कि इनमें तरह-तरह की कारस्तानियाँ होती हैं।काले व भद्दे होठों को रंगकर लाल कर दिया जाता है।बालों का रंग काला, पीला, भूरा या हरा कर दिया जाता है । तरह-तरह के क्रीम-पाउडर से चेहरे की रंगत निखारी जाती है।
लाजो ने सोचा, यदि उसे किसी ब्यूटी-पार्लर में जाने का मौका मिल जाए तो वह तरह-तरह का सामान नूरी के लिए उठा लाये।
पर ब्यूटी-पार्लर में बिना किसी काम के घुसना टेढ़ी-खीर था। बाहर चौकीदार लकड़बग्घे का पहरा रहता था। लाजो विचारमग्न बैठी ही थी कि तभी मटकती हुई लोलो गिलहरी वहां आ गई।लाजो ने अपनी चिंता उसे बताई।लोलो इठलाती हुई बोली, बुआ, मैं तो हर हफ्ते अपनी दुम को ट्रिम कराने वहां जाती हूँ।
-क्या कहा ? तू दुम कटा के आती है।
-ओ हो, कटाकर नहीं, ट्रिम करा के! बारीक काट-छांट से सुन्दर बनाकर।लोलो ने शान से कहा।
लाजो ईर्ष्या से भड़क उठी।यह पिद्दी सी गिलहरी वहां हमेशा जाती है?और लाजो को पता तक नहीं।लाजो को बड़ी खीझ हुई। खिसियाकर बोली- तो कौन सी बड़ी बात है, मुझे तो टाइम ही नहीं मिलता, नहीं तो मैं भी जाऊं।
लाजो ने मन ही मन यह ठान लिया कि यही ठीक रहेगा।वह अपनी दुम की शेप सुधरवाने ब्यूटी-पार्लर में जाएगी, और मौका ताककर वहां से नूरी के लिए तरह-तरह के सौन्दर्य-प्रसाधन उठा लाएगी।उठाई-गीरी में तो दूर-दूर तक कोई उसका सानी न था।
उसने लोलो से कुछ रूपये उधार ले लिए और चल पड़ी।
ब्यूटी-पार्लर को भीतर से देखकर लाजो दंग रह गई।उसने शीशे के सामने तरह-तरह के पोज़ बनाकर खुद को निहारा।वहां पड़ी बिंदी उठाकर अपने माथे पर लगाकर देखी।फिर मौका देखकर झटसे अपने मुंह पर लाली भी लगा ली।
लाजो लाज से दोहरी हो गई।
थोड़ी ही देर में उसकी दुम भी क़तर दी गई।वहां ऐसा पाउडर था, जिससे काला रंग गोरा हो जाये।लाजो ने खूब सारा पाउडर नूरी के लिए छिपाकर रख लिया।लाजो जब बाहर निकली तो पहचानने में भी नहीं आर ही थी।सब लेकर वह कोयल नूरी के यहाँ पहुंची।
लाजो से इतने उपहार पाकर नूरी की आँखों में आंसू आ गए।वह ख़ुशी के आंसू थे।नूरी ने बुआ लाजो को जमकर जामुनों की दावत दी। जितनी मीठी नूरी की आवाज़, उतने ही मीठे वे रसीले जामुन।लाजो को ऐसा लगा कि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है।
तीसरे पहर काफी सारे रसीले आम खाकर लाजो ने नूरी से विदा ली।
पेट इतना भर चुका था, कि लाजो को चलना दूभर हो रहा था। जैसे-तैसे आगे बढ़ी जा रही थी। लाजो ने सोचा, काश, कोई सवारी मिल जाये, तो कितना आनंद आ जाये।
बिल्ली के भाग से छींका टूटा। सामने से झुमरू बैल अपनी गाड़ी खींचता चला आ रहा था।लाजो ऐसा मौका भला कैसे छोड़ती ? झट सवार हो ली। झुमरू अपनी धुन में चला जा रहा था।हिचकोले खाती लाजो भी चल पड़ी।लाजो की आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं।सहसा लाजो ने एक मधुर सी स्वर-लहरी सुनी।कोई गा रहा था-
"कौन भला गाड़ी पर चढ़कर, चला ठुमकता अपने गाँव
किसने सबका भला किया है, क्या है बोलो उसका नाम?"
लाजो का गला जामुन खाने से ज़रा बैठा हुआ था, फिर भी सपनों के लोक से निकलकर नूरी जैसे ही स्वर में गा उठी-
"निकली वो सेवा करने को, सेवाकरना उसका काम
सारे उसको लाजो कहते, लाजवंती उसका नाम "
लाजो को झूम-झूमकर गाते देखकर झुमरू ने गर्दन घुमाकर देखा। झुमरू बोला- वाह लाजो बहन, तुम तो मेरे कोचवान के संग सुर मिलाकर बड़ा सुरीला गा रही हो?
कोचवान, कौन कोचवान ? यहाँ तो कोई नहीं दिखाई देता।
अरे, दिखाई कैसे देगा ? मेरे कान में जो घुसा बैठा है।झुमरू के यह कहते ही उसके कान से कूदकर दिलावर झींगुर बाहर आया, और बुलंद आवाज़ में बोला- चलो बुआ जी, गाना बंद करो, अब घरआ गया।
दिलावर को देखते ही लाजो ने सर पीट लिया।आज फिर उसकी तपस्या पर पानी फिर गया था।दिलावर झुमरू से कह रहा था, चाचा, लाजो बुआ से पैसा मत लेना।देखो, कैसा मीठा गीत सुनाया है।कहकर दिलावर जोर-जोर से हंसने लगा।लाजो नीची गर्दन करके चुपचाप घर के भीतर चली गई। लाजो ने हठ न छोड़ा।वह हताश थी पर निराश नहीं थी।
उसे कठिन तपस्या के बाद मूषकराज से यह वरदान मिला था कि यदि वह जंगल के ऐसे सभी जानवरों की सेवा करेगी, जिनकी छवि लोगों के बीच खराब है, तो उसकी अपनी छवि भी सुधरकर अच्छी हो जायेगी।और पंचतंत्र के ज़माने से उसे जो लोग धूर्त, मक्कार और चालाक समझते हैं, वे भी उसे भली, दयालु और ईमानदार समझने लगेंगे।
पर मूषकराज ने यह भी कहा था कि किसी की सेवा करने के बाद वह किसी भी कीमत पर गाना न गाये।यदि वह ऐसा करेगी तो उसकी तपस्या का फल न मिलेगा।
कठिनाई यह थी, कि लोमड़ी लाजवंती किसी की सेवा करने के बाद अपनी ही प्रशंसा में गीत गा उठती थी, और उसकी मेहनत निष्फल हो जाती थी।
लाजो ने सोचा, वह तो फिर भी एक लोमड़ी है, उससे भी छोटे-छोटे कई जीव कई बार परिश्रम करके सफलता पाते हैं। उसने खुद अपनी मांद में देखा था, नटनी मकड़ी कितनी मेहनत से रहने के लिए अपना जाला बुनती थी। नटनी असंख्य बार गिरती, परन्तु बार-बार उठकर फिर से कोशिश में जुट जाती।तब जाकर कहीं जाला बना पाने में सफल होती थी।
भला लाजो नटनी से कम थोड़े ही थी।उसने निश्चय किया कि वह असफलता से नहीं घबराएगी, और एक बार फिर जन सेवा के अपने इरादे के साथ निकलेगी।
आज उसने कृष्णकली से मिलने का मन बनाया।कृष्णकली भारी-भरकम भैंस थी, जो ज्यादा समय जुगाली में ही गुजारती थी। उसका शरीर जितना विशाल था, बुद्धि उतनी ही छोटी।शायद उसी के कारण जंगल में यह चर्चा चलती थी, कि अक्ल बड़ी या भैंस !
कृष्णकली को कुछ भी समझाना लोहे के चने चबाने जैसा था।बचपन में उसे पढ़ाने मास्टर मिट्ठू प्रसाद कई बार आये, पर हमेशा अपनी तेज़ आवाज़ में उसके आगे बीन बजाकर ही चले गए। कृष्णकली कुछ न सीखी।उसे तो बस दो ही चीज़ें प्रिय थीं, हरी-हरी घास और तालाब का मटमैला पानी। हाँ, दूध देने में कृष्णकली कभी कंजूसी न करती।
लाजो ने सोचा, यदि इस कृष्णकली में थोड़ी भी बुद्धि आ सके तो उसकी छवि सुधर जाए।उसने कृष्णकली की सेवा करने को कमर कस ली, और उसकी मदद को दिमाग दौड़ाना शुरू कर दिया। बख्तावर खरगोश ने कभी लाजो लोमड़ी को बताया था कि आजकल के बच्चे कॉपी- किताब से पढ़ाई नहीं करते।उन्हें सब-कुछ टीवी-कंप्यूटर से सिखाया जाता है। इससे बैठे-बैठे मनोरंजन भी होता रहता है, और आसानी से पढ़ाई भी।हाँ, बस एक खतरा रहता है कि आँखों पर बचपन में ही चश्मा लग जाता है।
लाजो ने सोचा कृष्णकली को पढ़ाने का यही तरीका सबसे अच्छा रहेगा।चश्मा लगे तो लगे।कृष्णकली को चश्मा लगाने में कहाँ दिक्कत थी। लम्बे-लम्बे घुमावदार सींग थे, एक क्या दस चश्मे लग जाएँ।
लाजो ने बैठे-बैठे ही सपना देखना शुरू किया- "वह कृष्णकली को पढ़ाने गई है।वह एक प्यारा सा टीवी और नन्हा सा कंप्यूटर लेकर कृष्णकली के सामने बैठी है।कृष्णकली भैंस एक अच्छी बच्ची की तरह सब कुछ याद कर-करके सुना रही है। फिर वापस आते समय कृष्णकली ने ढेर सारे दूध की मलाईदार खीरलाजो को दी है।लाजो ने भरपेट खाई है , और जो बची उसे एक बर्तन में साथ लेकर वापस आ रही है।"
तभी लाजो जैसे नींद से जागी। उसका सपना टूट गया।उसने देखा, कि उसके मुंह से पानी टपक-टपककर ज़मीन को भिगो रहा है।लाजो शरमा गई।उसने जल्दी से इधर -उधर देखा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा।फिर पैर से फ़टाफ़ट ज़मीन साफ करने लगी।
लाजो का भाग्य आज बड़ा प्रबल था। वह बैठी सोच ही रही थी कि गली में एक टी वी बेचने वाला आया।उसके कंधे पर एक झोला टंगा था जिसमें छोटे-छोटे कंप्यूटर भी थे।
बेचने वाला बड़ा भला था। वह बोला, यदि लाजो किसी की जमानत दिला सके तो वह सौदा उधार भी कर सकता है। ऐसे में लाजो का पड़ौसी बख्तावर खूब काम आया।सब झटपट हो गया।
भैंस कृष्णकली के तो ख़ुशी के मारे पाँव ही ज़मीन पर न पड़ते थे।जब उसे पता लगा कि लाजो लोमड़ी उसे पढ़ा-लिखाकर बुद्धिमती बनाना चाहती है तो उसने हुलसकर लाजो को गले से लगा लिया।
उसे पढ़ाकर लाजो लौटने लगी तो कृष्णकली ने उसे बताया कि वह एक बच्चे को जन्म देने वाली है, इसलिए वह आजकल दूध नहीं देर ही।उसने लाजो को बिना दूध की चाय पिलाई। खूब कड़क। लाजो लोमड़ी को इस बात की ख़ुशी थी कि भैंस कृष्णकली को अब कोई बुद्धू न कह सकेगा।जब लाजो लौटने लगी तो कृष्णकली ने उससे कहा- बहन, मैंने तो सुना है कि विद्यालय में बच्चों को पढ़ाते समय उन से प्रार्थना भी करवाई जाती है।तुमने तो मुझसे कोई प्रार्थना करवाई ही नहीं।
अरे हाँ, वह तो मैं भूल ही गई।लाजो चहकी।
तभी लाजो व कृष्णकली एक साथ चौंक पड़ीं।कृष्णकली के खूंटे से कोई आवाज़ आ रही थी।दोनों ने एक-साथ उधर देखा, जैसे खूंटा गा रहा हो-
"हम सब पढ़-लिख जाएँ जग में, जन-जन का हो वे सम्मान
जिसने हमको ज्ञान दिया है, बोलो क्या है उसका नाम?"
कृष्णकली आश्चर्य से खूंटे की ओर देख ही रही थी कि लाजो ऊंचे स्वर में गा उठी-
"ज्ञान-दीप की बाती बनकर, जो आती है सबके धाम
सारे उसको लाजो कहते, लाजवंती उसका नाम !"
लाजो का गीत सुनकर कृष्णकली बड़ी खुश हुई।वह ख़ुशी से अपनी पूंछ हिलाने लगी।तभी खूंटे से उड़कर दिलावर झींगुर कृष्णकली की पूंछ पर बैठ गया।
दिलावर को देखते ही लाजो के होश उड़ गए।लाजो को अपनी भूलका अहसास होगया।पर अब हो ही क्या सकता था? वह कृष्णकली को अलविदा कहे बिना ही गर्दन झुकाकर अपने डेरे की ओर लौट पड़ी।
दिलावर उसकी पीठ पर बैठकर उसके साथ ही घर वापस आया।लाजो ने उस रात खाना तक न खाया।रात गहरी हो चली थी।
लाजो ने हठ न छोड़ा।
आज उसे दिलावर पर भी क्रोध आ रहा था , जो बार-बार उसे गाने के लिए उकसाकर उसकी तपस्या निष्फल कर देता था।वह मूषकराज के प्रति भी ज्यादा खुशन थी।उसे लग रहा था कि उन्होंने लाजो को कठिन परीक्षा में फंसा दिया है। किन्तु जल्दी ही लाजो संभल गई।उसने सोचा, देवता पर संदेह करना उचित नहीं है।वे इससे कुपित होकर कोई अनिष्ट भी कर सकते हैं। वह सहम कर रह गई।
किन्तु लाजो इतनी आसानी से हार मानकर बैठ जाने वाली नहीं थी। वह भी जीवट वाली लोमड़ी थी।उसने सोचा कि वह अबकी बार पूरी सावधानी रखेगी, और अपना तप भंग न होने देगी।
लाजो आज छन्नू गिरगिट के मोहल्ले में जाना चाहती थी।
छन्नू गिरगिट की भी कम फजीहत न थी। लोग कहते थे कि वह रंग बदलने में माहिर है, इसीलिए उस पर कोई ऐतबार नहीं करता। भला ऐसे लोगों पर कौन यकीन करे जो पल में तोला , पल में माशा।यानि कभी कुछ और कभी कुछ। ऐसों को तो बिन-पेंदी का लोटा ही कहा जायेगा !
गिरगिट घने पेड़ों वाले बगीचे में रहता था। कभी हरा रंग बनाकर टिड्डों के पास पहुँच जाता, और उन्हें धड़ाधड़ खाने लग जाता। तो कभी तुरत-फुरत केसरिया रंग का होकर नारंगी के पेड़ पर पहुँचता, और आराम से बैठकर खट्टा-मिट्ठा रस पीने लग जाता।
बाग़ के माली को नारंगी पर बैठा गिरगिट दीखता ही नहीं, वह भला उसे कैसे पहचाने ? और पहचाने ही नहीं, तो भगाए कैसे ? मुसीबत थी।
छन्नू को भूरा रंग बदलने में भी देर नहीं लगती। जब कोई मारने आये तो भूरा रंग धारण कर के मिट्टी में दौड़ना शुरू। अब मिट्टी में भूरा गिरगिट कौन पहचाने ? बस, मारने वाला लाठी पीटता रह जाता, और छन्नूमियां रफूचक्कर!
कितनी बदनामी होती थी। लोग दगा करने वाले से कहते- "क्या गिरगिट की तरह रंग बदलता है।"
लाजो को यह सब जरा न भाया। उसने तय कर लिया कि वह गिरगिट की छवि बदलकर ही रहेगी।
पर अब सवाल ये था कि छवि बदले कैसे ? लाजो लोमड़ी जानती थी कि समझाने-बुझाने से तो गिरगिट बाबू मानने वाले हैं नहीं । उनसे यह कहने का कोई लाभ नहीं था कि वह रंग न बदला करें।
लाजो को एक ही रास्ता नज़र आया, कि वह बाज़ार से पक्के रंग का कोई डिब्बा ले आये, और गिरगिट छन्नू-मियां को रंग दे ! फिर बार-बार रंग बदलने का झंझट ही ख़त्म।
पर अब दो उलझनें थीं । एक तो यह , कि लाजो रंग के लिए पैसे का बंदोबस्त कैसे करे, और दूसरी, रंग लगाया कैसे जाए। क्योंकि गिरगिट मियां इतने सीधे तो थे नहीं कि चुपचाप अपना शरीर रंगवा डालें। जोर जबरदस्ती लाजो करना नहीं चाहती थी। सेवा-पुण्य का काम ठहरा।किसी को सुधारने का यह कौन सा तरीका था, कि उससे जबरदस्ती ही की जाए। लाजो तो सबको खुश रखना चाहती थी।
कुछ भी हो, लाजो नसीब की बड़ी धनी थी।आज होली का त्यौहार निकला।लो, सुबह से उसका ध्यान ही नहीं गया।दूर से ढोल-नगाड़ों की आवाजें आ रही थीं। दोपहर में जंगल-भर में रंगारंग होली शुरू होने वाली थी।
हो गया काम ! अब भला लाजो को क्या परेशानी। गिरगिट मियां को रंग डालने का अच्छा बहाना मिल गया।लाजो ने सोचा, हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आएगा।
उधर जैकी-जेब्रा का बेटा एशियन पेंट्स की फैक्ट्री में माल ढोने के लिए लगा हुआ था, वही रंग का एक डिब्बा लाजो बुआ को उपहार में दे गया।
लाजो चल दी छन्नू-गिरगिट से होली खेलने। वह सोचती जा रही थी, आज गिरगिट पर ऐसा पक्का रंग चढ़ायेगी कि मियां तरह-तरह के रंग बदलना ही भूल जायेंगे। फिर कोई नहीं कह सकेगा कि "क्या गिरगिट की तरह रंग बदलते हो ?" सुधर जाएगी छवि गिरगिट की।
त्यौहार होने का यह लाभ हो गया लाजो को, कि नाश्ता-पानी घर में नहीं बनाना पड़ा कुछ।अब आज तो जहाँ जाये, पकवान मिलने ही वाले थे। छन्नू कोरा होली खेलकर थोड़े ही छोड़ देता लाजो भौजी को? खातिरदारी तो करनी ही थी।लाजो होली खेली, और खूब जमके खेली।
सर से लेकर पूंछ तक लाल ही लाल कर छोड़ा गिरगिट बाबू को। गिरगिट जी तो बेचारे यह भी नहीं जान पाए कि अब कितना भी रगड़-रगड़कर नहायें, यह रंग नहीं छूटने वाला। छन्नू गिरगिट तो यह भी नहीं जानता था कि रंग लगाकर लाजो लोमड़ी ने किस तरह उसकी भलाई की है, इसलिए लाजो ने ज्यादा रुकना मुनासिब नहीं समझा। छन्नू ने लाजो को खूब मीठे-मीठे बेर खिलाये।
लाजो मस्ती में झूमती घर वापस जा रही थी, कि रास्ते में खूब सारे मोहल्ले वाले नाचते-गाते मिल गए।लाजो ने भी जमके ठुमके लगाए । ताली बजा-बजाकर चुहिया अनुसुइया गीत गा रही थी। अनु की आवाज़ बड़ी मीठी थी, सब उसका साथ दे रहे थे-
"रंग-रंगीली होली आई, उड़ें रंग के रंग तमाम
किसने किसके रंग लगाए, पक्के, बोलो उसका नाम!"
लाजोनाचती-नाचतीहांफगईथी, फिरभीऊंचेस्वरमेंगाउठी-
"रंगबदलनेवालेकाजो, करकेआईपक्काकाम
सारे उसकोलाजोकहते, लाजवंती उसका नाम !"
लाजो का गीत सुनकर सब ख़ुशी से नाचने लगे। भीड़ से निकलकर दिलावर झींगुर सामने आया, और लाजो के गुलाल लगाता हुआ बोला- होली मुबारक बुआ ! वाह, क्या गीत गाया।
दिलावर को देखते ही लाजो जैसे आसमान से गिरी। नाचते-नाचते पाँव के नीचे से ज़मीन ही निकल गई।होली का सारा मज़ा किरकिरा हो गया।लाजो धप्प से ज़मीन पर ही बैठ गई। दिलावर उछलकर सामने आया, और बोला- अरे बुआ जी, तुमतो नाच-गाकर इतना थक गईं। चलो, मेरे घर चलो, शकरकंद के छिलके के चिप्स खिलाऊंगा। ख़ास तुम्हारे लिए बनाए हैं मेरी घरवाली ने। कहती थी, बुआजी को ज़रूर लाना दावत पर। लाजो ने हठ न छोड़ा।
आज लाजो लोमड़ी ने मन ही मन निश्चय किया कि वह तालाब के किनारे जाकर बगुलाभगत से मिलेगी।उसने सुन रखा था कि सारे जंगलवासी बगुला भगत को पाखंडी कहकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं, क्योंकि वह एक टांग से पानी में खड़ा होकर दिनभर मछलियाँ खाता है।
उसने सोचा, वह बगुलाभगत से मिलकर उसे समझाएगी कि वह मछलियों को न खाया करे।जिस तालाब में वह रहता है उसी की मछलियों को खाना भला कहाँ का न्याय है।
भगत मछली खाना छोड़ देगा तो फिर जंगल में उसे कोई भी बुरा न कहेगा।इससे बगुलाभगत की छवि अच्छी हो जाएगी, और फि रमूषकराज के वरदान के अनुसार लाजो की अपनी छवि भी सुधर जायेगी।सब लाजो की तारीफ़ करेंगे और उसका जीवन सफल हो जायेगा।
लाजो यह भी जानती थी कि दूसरों की भलाई करने के बाद अपनी तारीफ़ में गाना गाने से उसका काम कई बार बिगड़ गया था। उसने मन ही मन ठान लिया कि आज चाहे कुछ भी हो जाए, वह लौटते समय गाना नहीं गाएगी। इस तरह उसकी तपस्या पूरी होगी और उसकी तपस्या का फल मिल जाएगा।
सुबह तड़के ही लाजो बड़े तालाब की ओर चल दी। उसे ज्यादा पूछताछ नहीं करनी पड़ी।बगुला भगत उसे किनारे पर ही खड़ा मिल गया।वह चुपचाप खड़ा होकर ध्यान लगा रहा था, ताकि उसे संत -महात्मा समझकर मछलियाँ उसके पास आ जाएँ, और फिर वह तपाक से झपट्टा मारकर उन्हें खा डाले।
लाजो सही समय पर पहुँच गई। उसे देखते ही भगत प्रणाम करता हुआ किनारे चला आया।हाथ जोड़कर बोला- कहो मौसी, आज इधर कैसे आना हुआ? बगुला भगत को थोड़ी शंका भी हुई, क्योंकि उसने पंचतंत्र के दिनों में लोमड़ी द्वारा अपने चचेरे भाई लल्लू सारस को खीर की दावत के बहाने बुलाने और धोखा देने की कहानी "जैसे को तैसा" भी सुन रखी थी।
लाजो ने झटपट उसे अपने आने का कारण बता डाला।बोली- तुम आज से मछलियाँ खाना छोड़ दो, तो तुम्हारी बहुत प्रशंसा होगी। मुझ पर भी उपकार होगा।
भगत हैरान रह गया। फिर भी बोला- अरे मौसी, इतनी सी बात?
बगुला भगत बोला- लो, मैं आज से ही मछली खाना छोड़ देता हूँ। पर मेरी भी एक शर्त है ! मैं रोज़ तुम्हारे घर आऊँगा। वहां जो कुछ भी हो, तुम मुझे भोजन करा दिया करना।आखिर तुम भी तो भोजन पकाती ही होगी?
लाजो लोमड़ी एक पल को ठिठकी, पर और कोई चारा न था।उसे ये शर्त माननी ही पड़ी।बगुला भगत ने भी लाजो को वचन दे डाला कि वह अब कभी मछलियाँ नहीं खायेगा।
लाजो ख़ुशी से झूम उठी।उसे लगा कि अब उसकी तपस्या ज़रूर पूरी होगी।ख़ुशी में वह यह भी भूल गई कि वह सुबह से भूखी है। फिर भी वह प्रसन्न होती हुई अपने घर की ओर चल पड़ी।
आज उसने सोच रखा था कि चाहे जो भी हो, कोई भी गीत उसे नहीं गाना है। वह मन ही मन दुहराने लगी-
-मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है...वह चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती हुई जा रही थी कि उसे कहीं दिलावर झींगुर न मिल जाये। वह जोर-जोर से बोल रही थी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है ...
चलती-चलती लाजो घर पहुँच गई। वह बड़ी खुश थी कि आज उसने कोई गाना नहीं गाया था, और उसकी तपस्या पूरी होने वाली थी।
लाजो ने ज्यों ही अपने घर का दरवाज़ा खोला, वह भौंचक्की रह गई। सामने चौक में बगुला भगत बैठे थे, जो उड़कर उससे पहले ही वहां पहुँच गए थे।
लाजो उन्हें देखते ही सकपकाई। उसे ध्यान आया कि अब तो बगुला भगत को भी भोजन कराना पड़ेगा।उधर खुद भूख के मारे उसका हाल बेहाल था। मगर फिर भी आज वह अपनी तपस्या निष्फल नहीं होने देना चाहती थी। वह जोर-जोर से बोलने लगी- मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गानाहै ...
बगुला भगत भूख से व्याकुल था। उसे लाजो की रट से खीज होने लगी। वह भी जोर-जोर से बोलने लगा- मुझे भूख लगी, खाना है? मुझे भूख लगी खाना है?
दोनों की जुगलबंदी चलने लगी।
"मुझे गीत नहीं गाना है, मुझे गीत नहीं गाना है
मुझे भूख लगी, खाना है, मुझे भूख लगी खाना है?" तभी लाजो के घर का दरवाज़ा खड़का।बख्तावर और दिलावर एक साथ ताली बजाते हुए अन्दर दाखिल हुए। दिलावर ने कहा- वाह, क्या जुगलबंदी है? आज तो लाजो बुआ कव्वाली गा रही हैं।क्या आवाज़ है।
उन दोनों को देखते ही लाजो पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। उसे लगा कि गीत गाने से आज उसकी तपस्या फिर बेकार हो गई। वह भूखी तो थी ही, गुस्से में बगुले, खरगोश और झींगुर, तीनों पर झपट पड़ी।बोली- मैं तुम तीनों को खाऊँगी।
बगुला झट से पंख फड़फड़ाकर छत पर जा बैठा। झींगुर भी उड़कर दीवार के एक छेद से झाँकने लगा।खरगोश तो था ही चौकन्ना, झट एक बिल में घुस गया। तीनों हंसने लगे।लाजो लोमड़ी हाथ मलती रह गई।फिर खिसियाकर बोली- अरे मैं तो मजाक कर रही थी। आ जाओ तुम तीनों, मैं अभी खीर बनाती हूँ।
तीनों में से कोई न आया। लोमड़ी खीजकर वहां से जाने लगी। पीछे से हँसते हुए बगुला बोला- "वो देखो, चालाक लोमड़ी जा रही है!" खरगोश ने कहा-"शायद यहाँ के अंगूर खट्टे हैं!"
तभी पेड़ से उड़कर मिट्ठू प्रसाद भी वहांआ बैठे। वे बुज़ुर्ग और अनुभवी थे। बोले- " देखो बच्चो, लाजवंती बहन अपनी छवि तो सुधारना चाहती थी, लेकिन अपने कार्य नहीं सुधारना चाहती थी।हमारी छवि हमारे कार्यों से बनती है। यदि हम अच्छे काम नहीं करेंगे तो हमारी छवि कभी अच्छी नहीं हो सकती।बुरे कर्म करके अच्छी छवि बनाने की कोशिश करना अपने आपको और दूसरों को धोखा देना है। ऐसा करके हम कभी जनप्रिय नहीं हो सकते। छवि हमारे कर्मों का अक्स है। छवि बनाई नहीं जाती, जैसे कार्य होते हैं, वैसी ही बन जाती है।
उजाला उगता नहीं है। सूरज उगता है तो उजाला स्वतः हो जाता है। हाँ, समय बहुत शक्तिशाली है, यह सब-कुछ बदल सकता है, लेकिन तब, जब हम ईमानदारी से कोशिश करें।
-प्रबोध कुमार गोविल
-प्रबोध कुमार गोविल
चलिए ! चलते हैं आज की 'दस' श्रेष्ठ रचनाओं की ओर
एक बार फिर इश्क की होली
दर्द की नदी में
छप-छप करते नंगे पांव
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े बन-माहिं
'आपको कुछ अंदाज़ा है कि सुई कहाँ गिरी थी?'
फ़ातिमा बी ने जवाब दिया -
'सुई तो मेरे घर के अन्दर ही गिरी थी पर चूंकि घर
में अँधेरा था इसलिए उसे बाहर उजाले में खोज रही हूँ.
स्वार्थी
आज मैंने तुम्हें
तुमसे मिलाने की कोशिश करी
जिंदगी .....
ठक-ठक...
कौन ? अंदर से आवाज आई।
क्या बिटिया की लाज अलग है?
अक्सर बिकते आज कलम भी कीमत भले अलग होती है
जिसे दाम ज्यादा मिल जाता तब उसकी आवाज अलग है
दर्द की नदी में
छप-छप करते नंगे पांव
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूढ़े बन-माहिं
'आपको कुछ अंदाज़ा है कि सुई कहाँ गिरी थी?'
फ़ातिमा बी ने जवाब दिया -
'सुई तो मेरे घर के अन्दर ही गिरी थी पर चूंकि घर
में अँधेरा था इसलिए उसे बाहर उजाले में खोज रही हूँ.
स्वार्थी
आज मैंने तुम्हें
तुमसे मिलाने की कोशिश करी
जिंदगी .....
ठक-ठक...
कौन ? अंदर से आवाज आई।
क्या बिटिया की लाज अलग है?
अक्सर बिकते आज कलम भी कीमत भले अलग होती है
जिसे दाम ज्यादा मिल जाता तब उसकी आवाज अलग है
ये वक़्त है
सूखने,चटकने,टूटने और मरने का
जहाँ ख्वाहिशों के फूल उगाना
न सहज होता है न सरल
परन्तु फूल उगाना लाजिमी है
मनोबुध्यहंकार चित्तानि नाहं ,
न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राण नेत्रे ,
न च व्योमभूूमिर्न तेजो न वायु :
चिदानंद रूप : शिवोहम शिवोहम...
नाज़ुक कश्ती में
गीले जज़्बात रख
दरिया-ए-अश्क़ में
बहा दिया
उष्मित होता है जब प्रेम,
पिघलती रहती है
भावों की बर्फ
परत दर परत,
परम आदरणीय शैल चतुर्वेदी जी
उद्घोषणा
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
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धन्यवाद।
टीपें
अब 'लोकतंत्र' संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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'एकलव्य'
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