थक गया हूँ चलते-चलते,
एक छाँव की आस है।
बैठ लूँ तनिक और
न जाने कैसी प्यास है।
सेहरा में था, न कोई प्यास थी
अब समंदर में हूँ,तो बुझती नहीं !
स्वर और शब्दों का मेल एक अनूठी कला जिसका कोई सानी नहीं।
हर कोई प्रयासरत बनने को तानसेन
अकबर स्वरूपी यूट्यूब के दरबार में।
प्रजा भी वाह-वाह कहती है
अपने लाइक भरे अंदाज में।
ज्यादा व्यू मिले सभवतः मार्डन दरबारियों को आपका गीत काफी पसंद आया नहीं तो आप बेसुरे ठहरे ! परन्तु यह आवश्यक नहीं की मॉडर्न दरबारी भी संगीत कला में उतने ही पारंगत हैं जितने की आप। पर क्या करें इन कलमवीरों का जो अपनी लेखनी की ताकत टेस्टट्यूब पर आजमाने चले हैं। काश आज मुंशी जी होते तो कुछ और बात होती। महादेवी जी निराला जी से सीख रहीं होती यूटूब पर अपनी रचनाओं को प्रसिद्धि दिलाने के गुन ! सोजे वतन अंग्रेजों के सामने से बस यूँ ही निकल जाता मानों आगरा और दिल्ली के मध्य चलने वाली संभावित बुलेट ट्रेन ! उन्हें मुंशी जी की रचना की प्रतियाँ आग के हवाले करने की जल्दी न होती। दस हज़ार लाइक और आग गली-गली फैल गई। परन्तु वो आग देखने को न मिलती जो उनकी क्रांतिकारी प्रतियाँ जलाने पर दिखीं थीं। अफ़सोस आज के लेखनी का वीर अपने ही लिखे शब्दों की ताकत पर भरोसा नहीं करता। भरोसा तो है ! परन्तु उस यू ट्यूब वाले व्यापारी पर जिसकी कमाई का स्रोत हमारे आज के ये वीर जिन्हें सभवतः पता हो ! पर निर्भर करता है। व्यापार और साहित्य का मेल बड़ी अतिशयोक्ति सी प्रतीत होती है। उसपर भी हमारे कुछ जागरूक लेखक वाट्सअप की ख़ामियों वाला वीडियो अपलोड करते और वो भी अपने वाट्सअप ग्रुप पर। मतलब 'गुड़ खाए और गुलगुला से परहेज़' ! मेरे भी कुछ शुभचिंतकों ने मुझे अपने वाट्सअप ग्रुप से जोड़ लिया वो तो अच्छा हुआ कि मेरे स्मार्टफोन का स्क्रीन जल्द ही अपना रंग दिखाने लगा और अब कोमा मे है नहीं तो आज ये लेख लिखने में मुझे बड़ी ही शर्मिंदगी का अनुभव होता। वैसे भी मैं पॉलीथीन के उपयोग का पुरजोर विरोध करता हूँ पर क्या करूँ ! थैला तो हमेशा साथ नहीं रख सकता। घर पर गोलगप्पे ले जाने हैं और कपड़े के थैले में पानी रिस जायेगा। कल किसी ने कहा अरे भई ! कैसे आदमी हो ? अपना अंग दान किया की नहीं ? आपको मालूम हो स्वयं उस महाशय ने एक यूनिट रक्त भी कभी दान किया हो तो जानो ! हाँ, ये जरूर है तख़्तियाँ उठाने में उनका कोई जवाब नहीं। एक बार उन्होंने हमें जागरूक किया और मैं भी उनके साथ अपने हॉस्पिटल के रक्तकोष में देशहित में रक्तदान हेतु पहुँचा और सहर्ष ही अपने शरीर की नसों में सुई की एक नाल ठुकवा बैठा। मेरा रक्त तो निकल गया परन्तु जागरुकता अभियान के संचालक महोदय बिना रक्त दिए ही वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गए। पूछने पर पता चला कि उन्हें रक्त देने में प्राण गंवाने का भय है। ऐसे हैं हमारे रक्तदान और अंगदान जागरुकता अभियान के संचालक। दोहरे मापदंड के पक्षधर ! चलिए छोड़िए,क्या रखा है इन गूँगी-बहरी बातों में।
हर कोई प्रयासरत बनने को तानसेन
अकबर स्वरूपी यूट्यूब के दरबार में।
प्रजा भी वाह-वाह कहती है
अपने लाइक भरे अंदाज में।
ज्यादा व्यू मिले सभवतः मार्डन दरबारियों को आपका गीत काफी पसंद आया नहीं तो आप बेसुरे ठहरे ! परन्तु यह आवश्यक नहीं की मॉडर्न दरबारी भी संगीत कला में उतने ही पारंगत हैं जितने की आप। पर क्या करें इन कलमवीरों का जो अपनी लेखनी की ताकत टेस्टट्यूब पर आजमाने चले हैं। काश आज मुंशी जी होते तो कुछ और बात होती। महादेवी जी निराला जी से सीख रहीं होती यूटूब पर अपनी रचनाओं को प्रसिद्धि दिलाने के गुन ! सोजे वतन अंग्रेजों के सामने से बस यूँ ही निकल जाता मानों आगरा और दिल्ली के मध्य चलने वाली संभावित बुलेट ट्रेन ! उन्हें मुंशी जी की रचना की प्रतियाँ आग के हवाले करने की जल्दी न होती। दस हज़ार लाइक और आग गली-गली फैल गई। परन्तु वो आग देखने को न मिलती जो उनकी क्रांतिकारी प्रतियाँ जलाने पर दिखीं थीं। अफ़सोस आज के लेखनी का वीर अपने ही लिखे शब्दों की ताकत पर भरोसा नहीं करता। भरोसा तो है ! परन्तु उस यू ट्यूब वाले व्यापारी पर जिसकी कमाई का स्रोत हमारे आज के ये वीर जिन्हें सभवतः पता हो ! पर निर्भर करता है। व्यापार और साहित्य का मेल बड़ी अतिशयोक्ति सी प्रतीत होती है। उसपर भी हमारे कुछ जागरूक लेखक वाट्सअप की ख़ामियों वाला वीडियो अपलोड करते और वो भी अपने वाट्सअप ग्रुप पर। मतलब 'गुड़ खाए और गुलगुला से परहेज़' ! मेरे भी कुछ शुभचिंतकों ने मुझे अपने वाट्सअप ग्रुप से जोड़ लिया वो तो अच्छा हुआ कि मेरे स्मार्टफोन का स्क्रीन जल्द ही अपना रंग दिखाने लगा और अब कोमा मे है नहीं तो आज ये लेख लिखने में मुझे बड़ी ही शर्मिंदगी का अनुभव होता। वैसे भी मैं पॉलीथीन के उपयोग का पुरजोर विरोध करता हूँ पर क्या करूँ ! थैला तो हमेशा साथ नहीं रख सकता। घर पर गोलगप्पे ले जाने हैं और कपड़े के थैले में पानी रिस जायेगा। कल किसी ने कहा अरे भई ! कैसे आदमी हो ? अपना अंग दान किया की नहीं ? आपको मालूम हो स्वयं उस महाशय ने एक यूनिट रक्त भी कभी दान किया हो तो जानो ! हाँ, ये जरूर है तख़्तियाँ उठाने में उनका कोई जवाब नहीं। एक बार उन्होंने हमें जागरूक किया और मैं भी उनके साथ अपने हॉस्पिटल के रक्तकोष में देशहित में रक्तदान हेतु पहुँचा और सहर्ष ही अपने शरीर की नसों में सुई की एक नाल ठुकवा बैठा। मेरा रक्त तो निकल गया परन्तु जागरुकता अभियान के संचालक महोदय बिना रक्त दिए ही वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गए। पूछने पर पता चला कि उन्हें रक्त देने में प्राण गंवाने का भय है। ऐसे हैं हमारे रक्तदान और अंगदान जागरुकता अभियान के संचालक। दोहरे मापदंड के पक्षधर ! चलिए छोड़िए,क्या रखा है इन गूँगी-बहरी बातों में।
आदरणीया शुभा मेहता जी
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है और आपकी लेखनी निरंतर चलती रहे यह कामना करता है।
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है और आपकी लेखनी निरंतर चलती रहे यह कामना करता है।
परिचय : आदरणीया शुभा मेहता
जन्म : कोलकाता (लिलुआ )ननिहाल ..
निवासी :ऐतिहासिक नगरी बूँदी ,राजस्थान
सम्प्रति :अहमदाबाद ,गुजरात
शिक्षा : स्नातकोत्तर राजनीति शास्त्र में ,राजस्थान विश्वविद्यालय से ।
संगीत विशारद .
स्वभाव से अन्तर्मुखी....
विपश्यना साधक ..
कुछ अनमोल शब्द स्वयं आदरणीया 'शुभा' जी के श्रीमुख से :
लेखन के बारे में इतना ही कहूँगी कि मैं न तो कोई कवयित्री हूँ न ही कथाकार बस कभी -कभी अन्तर्मन में कुछ विचार उमड घुमड करते है उन्ही को कलमबद्ध करने की कोशिश कर लेती हूँ ,..कुछ कविताएँ कोलकाता से प्रकाशित होने वाले "प्रभात खबर "में छपी हैं जिनमें ..रिश्ते ,चित्रकार ,माँ ,समन्वय ,भोर-किरन .आदि। मेरी लिखी रचनाओं में से मुझे मेरी एक रचना "ठूँठ "पसंद है।
मैं ध्रुव जी को धन्यवाद देना चाहूँगी जो उन्होंने मुझे इस काबिल समझा ...
आदरणीया 'शुभा' मेहता जी की एक रचना
ठूँठ..
हाँ ..... ठूँठ हूँ मैं
आते-जाते सभी लोग
लगता है जैसे चिढ़ाते हुए निकल जाते मुझे
भेजते लानत मुझ पर
कहते - कैसा ठूँठ सा खड़ा है यहाँ
इसके रहते इस जगह का सौंदर्य
जैसे ख़त्म सा हो गया है
और मैं उनकी बातों पर चिड़चिड़ा उठता
मन ही मन ,पर पूछ नहीं पाता
कि मुझे ठूँठ बनाया किसने
आँसू भी सूख चुके थे अब तक
ठूँठ जो हूँ.....
याद है मुझे अभी भी
जब मैं बीज था
कुछ बच्चे मुट्ठी में लेकर
लाये थे मुझे उगाने
रोज करते थे मेरा जतन
धीरे -धीरे अंकुर फूटे
बच्चे कितने खुश थे
नाच रहे थे ताली बजा -बजा कर
फिर धीरे -धीरे बन गया मैं एक विशाल वृक्ष
छाया में मेरी खेला करते बच्चे दिनभर
कितने ही पक्षियों का बसेरा था
मेरी शाखाओं में
कितना खुश था मैं
फिर अचनक एक दिन ..
ठाक... एक जोर का प्रहार
अपनी पीड़ा छुपा के देखने लगा इधय -उधर
मैंने सुना लोग कह रहे थे
अरे ये पेड़ तो है अब बेकार
चलो काट डालो इसे
मैं अवाक् सा रह गया
मैँने तो खुशियाँ ही बांटी
अपना सब कुछ तो दे दिया
फिर सोचा अरे ये तो इंसान है
अपनों को ही नहीं छोड़ता
फिर मैं तो पेड़ हूँ
मेरी क्या बिसात ।
कुछ दूर ही सही,राहों में मुलाक़ात तो होगी।
मैं रहूँ या ना रहूँ ,मंज़िल पर पहुँचने तक
संग मेरे तेरी याद ही सही, वो सौगात तो होगी।।
'एकलव्य'
चल पड़े हैं हम, उनकी तलाश में.....
एक चिड़िया का घर
उसकी चूं-चूं सुन,
जागता है सूरज,
उसके पंखों से छन कर,
आती है ठंढी हवा,
गुनगुनाती है जब चिड़िया,
टेढ़ी हुई जुबान
भोर हुई मन बावरा,सुन पंक्षी का गान
गंध पत्र बांटे पवन,धूप रचे प्रतिमान।
कासे कहूं हिया की बात!
दहक दहक दिन रात .
सबद नीर नयन बह निकले
भये तरल दोउ गात .
जीते के हारे : दो क़त्आ
हम उल्फ़त की बाज़ी को रक्खेंगे ज़ारी
नहीं फ़र्क़ इससे है जीते के हारे
ऐनक के इस पार
दूर तक वही बियाबां, वही अंतहीन शून्यता,
प्रतिध्वनियों का इंतज़ार अब बेमानी है,
चलो आज लगाएं यादों का बाज़ार
बाज़ार ए इश्क़ में बड़ी चालबाज़ी है
छूके देखिए जनाब ये आज भी ताज़ी है।
विकलांग
बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
गक्क्ड़ भरता बनायेंगे
तपती दोपहर की छाँव में बैठकर
भरपेट खायेंगे।
महेंद्र झा की दो मैथिली कविताएं
मुख्य सड़क की दाहिनी ओर
झुके बिजली के खम्भे से सटे
पूरब की ओर
देसी दारू की है दुकान
जहां हिलता-डुलता रहता है
मेरी गली का पता
दारुबाज
गोल घेरे में करते रहते हैं गाली-गलौज
और गली को भूलकर नगरपालिका की नाली में
गिरे रहते हैं मस्त होकर
सूअर और भैंस की तरह
आदरणीय सुशील जोशी जी की पसंद
जिदंगी के अश्लील चेहरे पर अल्मोड़े का क़रारा तमाचा है शंभू राणा
हम सफर थे अलीगढ़ी ताले
रात भर में खुले नहीं साले
तितलियां
दरवाजे बंद हैं सब
तितलियों के लिए,
अब ख़ुद ही करनी होगी उन्हें
अपने परों की हिफाज़त,
तमाम तितलियों के लिए
यह परीक्षा का समय है।
सत्ता-भक्ति में शक्ति
पानी केरा बुदबुदा, अस भक्तन की जात,
पद छिनते छुप जाएंगे, ज्यों तारा परभात.
कंठ है प्यासा
दूर-दूर तक भी
पेड़ न कोई
दावानल से सूखे
थे हरे-भरे
गीता गैरोला की कविताएँ
झांकती हैं
मुस्कराती हैं
,बैचेन हैं
दरबदर ,बेआवाज हैं
वो आग के खिलाफ है
रिश्ता
दूसरे दरवाजे तक का सफ़र
तय करने में बरसों गुजर जाते हैं ।
उम्र ठहरती नहीं
पता नहीं कहाँ चली गई
नहीं मिली
रेत की तरह
मुट्ठी से फिसल गई
या रेशा रेशा हो कर
चुटकी भर संवेदना…
क्या पता कौन कहाँ दुश्मन निकल आए
खुद को हर वक्त, पहरे पे लगाए रखिए
सुबह की चाय में बिस्कुट डुबा कर ...
फकत इस बात पे सोई नहीं वो
अभी सो जायेगी मुझको सुला कर
फरेब कैसे हैं
बनते हैं यूँ जैसे कि उन्हें,हमारी कोई तमन्ना ही नहीं ,
अजी जाने भी दीजिये,न पूछिए हुस्न के फरेब कैसे हैं।
गुज़रे हुए सालों की तरफ़
फ़िक़रे और तंज़ का
वो दौर
जिसमें नहीं था
कोई हम-सफ़र।
आदरणीया शुभा मेहता जी की आवाज में यह गीत
प्रणाम। ........
टीपें
अब 'लोकतंत्र' संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
'एकलव्य'
उद्घोषणा
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
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धन्यवाद।
आप सभी गणमान्य पाठकजन पूर्ण विश्वास रखें आपको इस मंच पर साहित्यसमाज से सरोकार रखने वाली सुन्दर रचनाओं का संगम ही मिलेगा। यही हमारा सदैव प्रयास रहेगा।
सभी छायाचित्र : साभार गूगल
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