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सोमवार, 23 अप्रैल 2018

४२ ........भवदीय "कलुआ"

हमारे कक्का जी की कहानियाँ क्या बताऊँ ! कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेतीं। अभी-अभी लगता है अब बस परन्तु फिर कोई हाईटेंशन ड्रामा ! अब कल ही की बात ले लो कक्का जी ने हमें दावत का निमंत्रण भेजा। हम भी लख़नवी चिकन का कुर्ता और टाइट पाजामा पहनकर कक्का जी के निवास स्थान पर जा धमके। चारों ओर रौशनी की चकाचौंध जिसमें हमारी डिबरी-सी आँखें बौरियानें लगीं। थोड़ी देर के लिए मानों हम सूरदास से हो गए। किसी ने हमारा हाथ पकड़कर गणेश टेंट हाउस से आई नई-नवेली किराए वाली कुर्सी पर बिठाया। आँख खुली तो देखा कक्का जी दांत चियार कर बत्तीसी दिखा रहे थे और कहे जा रहे थे। का रे कलुआ ! का हुआ ? पार्टी अच्छी नहीं लगी का तुमका ! मैंने झेंपते हुए नहीं-नहीं कक्का जी ये बात नहीं है थोड़ा प्रकाश ज्यादा होने की वजह से मेरी आँखें चौंधिया गईं थीं। वैसे आपकी पार्टी बहुत अच्छी है परन्तु ये सब किस लिए आपकी कउनो लॉटरी लगी है का ? कक्का जी 'गदहा' छाप मंजन का  प्रचार करते हुए नहीं रे ! ये बात नहीं है। दरसल मेरी एक कविता और दो कहानियाँ सरकार ने एक विशेष कक्षा के नवीन पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया है। इतना सुनते ही मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा आज कक्का जी का कद मेरी नजर में बहुत ऊपर हो गया था। तभी उन्होंने बताया की ये सब हमारे माननीय मंत्री जी का कमाल है। आप विश्वास करिए ! मुझे उसी समय कक्का जी का वो थोड़ी देर पहले वाला कद उससे पहले वाले कद से भी तुच्छ प्रतीत हो रहा था। वैसे मैं भी आजकल एक कहानी लिख रहा हूँ 'गधों की बारात' ! मंत्री जी की कृपा रहे तो अगले वर्ष नवीन पाठ्यक्रम में इसे भी स्थान मिल जाए। तब तक 'लोकतंत्र' संवाद मंच के माध्यम से थोड़ा इंतज़ार कर लेता हूँ। भवदीय "कलुआ" 
'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय  
अंक में आप सभी गणमान्य पाठकों का हार्दिक स्वागत करता है।  

हमारे आज के अतिथि रचनाकार

आदरणीय 'सुशील' कुमार शर्मा जी और उनकी एक रचना 

 मैं और मेरी धरती

पृथ्वी मेरी माँ की तरह
चिपकाए हुए है मुझे
अपने सीने में।
मेरे पिता की तरह
पूरी करती है मेरी
हर कामनाएं।
पत्नी की तरह
मेरे हर सुख का ख्याल
उसके जेहन में उभरता है
बहिन की मानिंद
मेरी खुशी पर सब निछावर करती
भाई की तरह
मेरे हर कष्ट को खुद पर झेलती
बेटी की तरह
मेरे घर को खुशबुओं से
करती सरोबोर
पृथ्वी एक नारी की प्रतिकृति
झेलती हर कष्ट
अपनों के दिये हुए दंश
लुटती है अपनों से
उसके बाद भी उफ नही
रुक जाओ दानवों
मत लूटो इस धरा को
जो देती है तुमको
अपने अस्तित्व को जीवनदान
पर्यावरण को सुधारो।
नदियों को मत मारो
जंगलों पर आरी
खुद की गर्दन पर कटारी
पॉलिथीन का जंगल
छीन लेगा तुम्हारा मंगल
वाहनों की मीथेन गैस
छीन लेगी तुम्हारी जिंदगी की रेस
अरे ओ मनुज स्वार्थी
प्रकृति और पृथ्वी से तू जिंदा है
क्यों न तूं अपने कर्मों से शर्मिंदा है
भौतिकता का कर विकास
मत कर खुद का विनाश।
कर इस धरती को सजीव
 बन पृथ्वी का शिरोमणि जीव।
(पृथ्वी दिवस पर विशेष)

आदरणीया 'अनीता' लागुरी जी एवं उनकी रचना 

  ख़ामोश मौतें!! 

 बस्तियां- दर- बस्तियां 
      हुईं  ख़ामोश ,
ये फ़ज़ाओं  में कोन-सा
      ज़हर घुल गया..!!
जहां तक जाती हैं
      नज़रें मेरी..!
वहां तक लाशों का
   शहर बस गया..!!
इन सांसों में कैसी,
     घुटन है छाई,
मौत से वाबस्ता
हर बार कर गया...!!
ये कैसी ज़िद है,
         तुम्हारी 
ये कैसा जुनून है 
        तुम्हारा..!
कि मुकद्दर में मेरे
सौ ज़ख़्म  लिख गया..!!!
तुम भी इंसां  हो
मैं भी इंसां  हूँ ,
फिर भला मेरी मौत
तुम्हें है...क्यों  प्यारी....??
   कभी देखा है?
मासूम हाथों में..!!
बहते लाल रंग को!!
जिह्वा निकल रही ,
उबलती आंखों को,
  कतारों में 
लेटी अनगिनत लाशों को,
कफ़न भी मयय्सर न
होने वाले मंज़र  को...!!
वो ऊपर बैठा 
वो भी यही सोच रहा होगा
कब इंसानो को मैंने 
राक्षस बना दिया..!!!


तो चलिए ! चलते हैं आज की रचनाओं की ओर  

 डेरा डाले पलकों में
 पल-पल तुम्हारी,
गिनूँ थरथराहट
 पुतलियों की,

  मैं नारी
खोज रही अस्तित्व को
हर उम्र , हर पड़ाव को लांघते
बाहर के अंधेरे से बचते
तो गुम होती

 वर्षों से दीवार पर टंगी 
तस्वीर से 
धूल साफ़ की 
आँखों में 
करुणा की कसक 

 ये रोशनी 
ये सवेरा 
और अंधेरे में 
चमकता हुआ 
ये तुम्हारा चेहरा।

शीतनिशा में हर पात झरा है
पीर का बिरवा भी  हुआ हरा है ।
मन-आँगन में  घना अँधेरा है  

 सबको देती है इतनी शक्ति
कि वह अपनी स्थिति का सामना कर सके
रेगिस्तान में देती है 
ताप सहने की शक्ति 


एक दिन बीत जाती है 
सारी बातें 

समय की शिला पर   
जाने किस घड़ी लिखी   
जीवन की इबारत मैंने   
ताउम्र मैं व्याकुल रही   


गाली-गलौच में सभी बेबाक हो गए 
धोये जो राजनीति से तो पाक हो गए। 

 एक बड़ा मिट्टी या सीमेंट का आँगन
लाल पोचाड़े से रंगा घर
बारामदे का पाया

 पढ़ती हूँ उनकी चुप जो रहते हैं आस पास 
दीखते हैं अक्सर हँसते हुए सहज से 
कभी-कभार चुप हो जाते हैं

 सोये सपनों को जगाने की ज़रूरत क्या है 
बे सबब अश्क बहाने की ज़रूरत क्या है 

दूर दूर तक भीड़ ही भीड़ है ,
पर कोई कुछ बोल नही रहा .

   मेरी नानी चाहती थी 
कि कुछ आदतें  
उनसे उनकी बेटी को मिले, 

 जून अगले हफ्ते तमिलनाडु जा 
रहे हैं और तीसरे सप्ताह में उन्हें कोलकाता 
जाना है, असमिया सखी के पुत्र की शादी में. अभी-अभी 
उससे फोन पर बात की, विवाह को लेकर कुछ चिंतित थी.

 एक श्रोता दूसरे श्रोताको धकाकर आगे बढ़ रहा था।
दूसरा फोटो के लिए तीसरे के काँधे पर ही चढ़ रहा था।

भीड़ अध्यक्ष के अगल बगल जब तक एक कतार लगाती ,
तब तक पहली कतार के आगे एक और कतार लग जाती।

 अक्षर अक्षर  घायल है
 जल रही है मेरी कविता
 निः शब्द पढ़े शब्दों से

 जीवन की प्रत्यंचा पर चढा कर
प्रश्न रुपी एक तीर
छोड़ती हूँ प्रतिदिन ,

 अपना घर कोई बनाना हो 
या कहीं दूर घूमने जाना हो 
कोई दुःख की बात हो 
या कोई जश्न मनाना हो 


नई मंगन तारों के संग 


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