आलोचना और सृजन
एक गहरा रिश्ता लिए हुए निरंतर
प्रगति के पथ पर गतिमान है। किसी की
आलोचना करना संभव है एक प्रतिशोध की भावना
के वशीभूत होकर स्वयं मन के उद्गार लोगों के समक्ष प्रस्तुत करना परन्तु यह कदापि नहीं कि इससे आपका अहित ही हो और यह आप पर पूर्णतः निर्भर करता है कि आप लोगों की आलोचनात्मक टिप्पणी को किस अर्थ में लेते हैं। सकारात्मक अर्थ ! एक नई दिशा में आपका प्रवेश, एक जीवंत समाज के निर्माण में। कुछ महानुभाव आलोचनात्मक टिप्पणी से बचते हैं, ज़ाहिर है रूढ़िवादी परम्पराओं के पक्षधर जो समाज को एक नई दिशा देने में पूर्णतः अक्षम। सोचना आपको है ! क्योंकि चुनाव भी आपका, वर्तमान भी आपका और वैसे भी भविष्य कौन जानता है ? न आप और न ही हम फिर भी वर्तमान की वे सभी प्रतिक्रियायें अपेक्षित, एक बेहतर भविष्य हेतु। जिसकी दिशा व पहल एक ऐसे लेखक व आलोचक द्वारा ब्लॉग जगत में निरंतर गतिमान है।
आइये ! हम मिलवाते हैं
आदरणीय माड़भूषि रंगराज 'अयंगर'
परिचय
आँध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले में बीसवीं सदीं के छठी दशाब्दि में जन्मा और अभिभावकों के रेलवे में नौकरीपेशा होने के कारण बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से विद्यार्जन हुआ. शिक्षा के नाम पर विज्ञान (बी एस सी), विद्युत अभियाँत्रिकी में स्नातक (बी ई) और प्रबंधन में डिप्लोमा मात्र हुआ. बचपन से लेखन में रुचि रही. पहली रचना ताजमहल 1968 में, मंच पर पढ़ी गई, उस पर मिले प्रोत्साहन और बधाइयों ने इसे शौक ही बना दिया. वैसे लेखन की रुचि को पितृ - ऋण कहा जा सकता है. पिताजी तेलगू भाषा में लिखते थे और खड़गपूर (बंगाल) के आँध्र समाज में काफी सक्रिय थे. उनको भेंट में मिली दिग्गजों की पुस्तकें आज भी मेरे पास धरोहर हैं. मेरी भाषा पर पकड़ में पिताजी का बहुत सहयोग रहा. उनके साथ रात भर किसी शब्द – वाक्य या कविता को लेकर चर्चा होती थी. 1979 में शिक्षा पूरी होने के बाद नौकरीवश उत्तर में अंबाला (चंडीगढ़ के पास) से पूर्व में गौहाटी और पश्चिम में द्वारकाजी तक जाने का मौका मिला. दक्षिण में नौकरी का मौका नहीं मिला. जिससे विभिन्न भाषाएँ सीखने का अवसर भी मिला. मातृभाषा तेलुगु के अलावा हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली, पंजाबी (गुरुमुखी), गुजराती लिख पढ़ बोल लेता हूँ. कम पकड़ के साथ कन्नड, तामिल, असामिया और मराठी में भी काम चला लेता हूँ. हाँ वैसे हिंदी भाषा क्षेत्र से शिक्षित होने के कारण हिंदी पर ज्यादा पकड़ है. अक्टूबर 2015 में इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन से , सेवानिवृत्त हुआ और हैदरबाद, तेलंगाना में बस गया हूँ.
साहित्यिक शिक्षा के रूप में हिंदी साहित्य विषय के साथ हायरसेकंडरी परीक्षा मात्र ही मेरी हिंदी की उच्चतम शिक्षा है. पर दक्षिण भारतीय मूल का होने के कारण किसी ने भी मुझे हिंदी में प्रवीण नहीं माना. मैं हर जगह अहिंदी भाषी ही माना गया. इसीलिए पाठकों का इतना आदर मुझे जरूरत से बेहद ज्यादा महसूस होता है. जहाँ तक साहित्यिक उपलब्धियों की बात है, ज्यादा कुछ नहीं है. बचपन के बाद करीब 1984 से रचनाएँ पत्रिकाओं/ अखबार में प्रकाशित होती रही हैं. विशेषतः इंडियन ऑयल, रेल्वे की और नराकास (नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिती )पत्रिकाओं में तो भरमार है.
साहित्यिक शिक्षा के रूप में हिंदी साहित्य विषय के साथ हायरसेकंडरी परीक्षा मात्र ही मेरी हिंदी की उच्चतम शिक्षा है. पर दक्षिण भारतीय मूल का होने के कारण किसी ने भी मुझे हिंदी में प्रवीण नहीं माना. मैं हर जगह अहिंदी भाषी ही माना गया. इसीलिए पाठकों का इतना आदर मुझे जरूरत से बेहद ज्यादा महसूस होता है. जहाँ तक साहित्यिक उपलब्धियों की बात है, ज्यादा कुछ नहीं है. बचपन के बाद करीब 1984 से रचनाएँ पत्रिकाओं/ अखबार में प्रकाशित होती रही हैं. विशेषतः इंडियन ऑयल, रेल्वे की और नराकास (नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिती )पत्रिकाओं में तो भरमार है.
साहित्यिक उपलब्धि
प्रकाशित पुस्तकें :
१ . दशा और दिशा - ISBN No. 978-93-85818-63-9
प्रकाशक ऑनलाईन गाथा , अप्रेल 2016.
पुस्तक प्रकाशक के पास की ऑल टाईम बेस्ट सेलर हुई.
पुस्तक प्राप्ति का लिंक
http://www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/354/Dasha-Aur-Disha.html
२. मन दर्पण –ISBN No. 978-81-933482-3-9
बुक बजूका पब्लिकेशन , मई 2017.
पुस्तक प्राप्ति का लिंक
http://www.bookbazooka.com/book-store/man-darpan.php
बुक बजूका पब्लिकेशन , मई 2017.
पुस्तक प्राप्ति का लिंक
http://www.bookbazooka.com/book-store/man-darpan.php
संपर्क – मो. 8462021340 (वाट्सप भी)
मेल –laxmirangam@gmail.com
ब्लॉग –https://laxmirangam.blogspot.in/
'लोकतंत्र' संवाद मंच आज के
'सोमवारीय' साप्ताहिक अंक में
आदरणीय माड़भूषि रंगराज 'अयंगर' जी का
हार्दिक स्वागत करता है।
चलिए चलते हैं !
आज की रचनाओं की ओर
जीवन रण
जीवन के रण में काँटे थे
हर ओर निराशा पसरी थी
गमगीन निगाहे घूर रही
यादों की परछाई
झूम झूमकर गाती थी ।
गा -गा कर झूमती थीं।
चौकीदार
गुल्सिताँ हमने संवारा
सहेजे अरमां और जज़्बात
रौनकें नौंचने आ गयी
कौए और बाज़ की बारात।
ग़ज़ल
आप जब से दिल के मेहमाँ हो गए
और कोई अब मुझे जँचता नहीं।।
ये गूँगी मूर्तियाँ
ये गूँगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
विदा
विदा का समय
कभी दुबके पाँव नहीं आता
बूढ़े होते हताश मन को, बच्चों सा नचाने को दौड़ें
कमजोर नजर जाने कब से टकटकी लगाए दरवाजे
असहाय अकेली अम्मा के,आंसू को सुखाने को दौड़ें !
चिड़िया
सूरज के घोंसले की
प्रथम रश्मि के तिनके से
वही जागरण गीत गाती है
कैसे हो साजन मेरे
ना कोई संदेशा आया है
झूठी हँसी से चेहरा सजा है
मन का पुष्प मुरझाया है
किस्मतवाला
न जाने क्यों
मित्रों के जाते ही
राग अनंत हृदय ने गाया
मन राही घर लौट गया है
पा संदेसा इक अनजाना,
नयन टिके हैं श्वास थमी सी
एक पाहुना आने वाला !
"अपने पराये"
पेड़ों की डाल से
टूट कर गिरे चन्द फूल
अलग नही है
ब्याह के बाद की बेटियों से
आंगन तो है अपना ही
पिंजरा
एक पिंजरे से निकालकर
दूसरे पिंजरे में
त्रिवेणी
गीत सुरीले
गाती है ये ज़िन्दगी
सुर पकड़
पन्त दाज्यू
1971 में लखनऊ यूनिवर्सिटी
में मैंने मध्यकालीन एवं भारतीय
इतिहास में एम. ए. में एडमिशन लिया था. बी. ए.
तक लड़कियों से मित्रता करने की कल्पना से ही मेरी रूह कांपती थी.
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
मिथ्या वाद भी दंडनीय
आजकल जहाँ एक तरफ
न्यायालयों की धीमी प्रक्रिया
को देखते हुए लोगों द्वारा अपना
अधिकार छोड़कर न्यायालयीन वादों को
समझौतों द्वारा निपटने के प्रयास जारी हैं वहीँ कितने
ही मामलों में न्यायालयों में अपनी अनुचित मांगें मनवाने
को झूठे वाद दायर करने की भी एक परंपरा सी चल पड़ी है
अनकहा
कभी कुछ कहना चाहो,
तो कह देना,
मैं बुरा नहीं मानूंगा,
अच्छा ही लगेगा मुझे
विघ्नविनाशक हे गणनायक
आज सुबह उसे टीवी पर
सद्गुरू के पावन वचन सुनने
का मौका मिला है. वह गणेशजी
का वन्दन उस स्त्रोत से कर रहे हैं जो
आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया है.
गणेश जी प्रथम मूलाधार चक्र के अधिपति हैं.
मधुऋतु
अलसभरी निगाहों
में। न पूछ यूँ
घूमा फिरा
कर
साँझ हो गई
उमड़ पड़ा
स्वागत को आतुर
स्नेही सागर
परिवर्तन शाश्वत है
परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
परिवर्तन ना होने पर जड़ता का
अनुभव होने लगता है।
भोर सुहानी
भोर सुहानी सुरमयी,पीत वर्ण श्रृंगार
हल्दी के थापे लगे ,फूलों खिली बहार
कुछ दीवारें
कुछ दीवारें
जब उठती हैं
हाथ जोड़ हम सबको करते सादर प्रणाम
सिखाता सभी का करना ये आदर प्रणाम
हाथ जोड़ हम सबको करते सादर प्रणाम
होली गीतों की भूली बिसरी परम्परा
होली का पर्व अपने साथ
ऐसा उल्लास और उमंग ले कर
आता है जिसमे हर इन्सान आकंठ डूब
जाता है | ये फाल्गुन मास में आता है |
फाल्गुन मास में बसंत ऋतुअपने चरम पर होतीहै |
आदरणीया 'शुभा' मेहता जी
टीपें
अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
एकलव्य
जीवन रण
जीवन के रण में काँटे थे
हर ओर निराशा पसरी थी
गमगीन निगाहे घूर रही
यादों की परछाई
झूम झूमकर गाती थी ।
गा -गा कर झूमती थीं।
चौकीदार
गुल्सिताँ हमने संवारा
सहेजे अरमां और जज़्बात
रौनकें नौंचने आ गयी
कौए और बाज़ की बारात।
ग़ज़ल
आप जब से दिल के मेहमाँ हो गए
और कोई अब मुझे जँचता नहीं।।
ये गूँगी मूर्तियाँ
ये गूँगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
विदा
विदा का समय
कभी दुबके पाँव नहीं आता
बूढ़े होते हताश मन को, बच्चों सा नचाने को दौड़ें
कमजोर नजर जाने कब से टकटकी लगाए दरवाजे
असहाय अकेली अम्मा के,आंसू को सुखाने को दौड़ें !
चिड़िया
सूरज के घोंसले की
प्रथम रश्मि के तिनके से
वही जागरण गीत गाती है
कैसे हो साजन मेरे
ना कोई संदेशा आया है
झूठी हँसी से चेहरा सजा है
मन का पुष्प मुरझाया है
किस्मतवाला
न जाने क्यों
मित्रों के जाते ही
राग अनंत हृदय ने गाया
मन राही घर लौट गया है
पा संदेसा इक अनजाना,
नयन टिके हैं श्वास थमी सी
एक पाहुना आने वाला !
"अपने पराये"
पेड़ों की डाल से
टूट कर गिरे चन्द फूल
अलग नही है
ब्याह के बाद की बेटियों से
आंगन तो है अपना ही
पिंजरा
एक पिंजरे से निकालकर
दूसरे पिंजरे में
त्रिवेणी
गीत सुरीले
गाती है ये ज़िन्दगी
सुर पकड़
पन्त दाज्यू
1971 में लखनऊ यूनिवर्सिटी
में मैंने मध्यकालीन एवं भारतीय
इतिहास में एम. ए. में एडमिशन लिया था. बी. ए.
तक लड़कियों से मित्रता करने की कल्पना से ही मेरी रूह कांपती थी.
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
मिथ्या वाद भी दंडनीय
आजकल जहाँ एक तरफ
न्यायालयों की धीमी प्रक्रिया
को देखते हुए लोगों द्वारा अपना
अधिकार छोड़कर न्यायालयीन वादों को
समझौतों द्वारा निपटने के प्रयास जारी हैं वहीँ कितने
ही मामलों में न्यायालयों में अपनी अनुचित मांगें मनवाने
को झूठे वाद दायर करने की भी एक परंपरा सी चल पड़ी है
अनकहा
कभी कुछ कहना चाहो,
तो कह देना,
मैं बुरा नहीं मानूंगा,
अच्छा ही लगेगा मुझे
विघ्नविनाशक हे गणनायक
आज सुबह उसे टीवी पर
सद्गुरू के पावन वचन सुनने
का मौका मिला है. वह गणेशजी
का वन्दन उस स्त्रोत से कर रहे हैं जो
आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया है.
गणेश जी प्रथम मूलाधार चक्र के अधिपति हैं.
मधुऋतु
अलसभरी निगाहों
में। न पूछ यूँ
घूमा फिरा
कर
साँझ हो गई
उमड़ पड़ा
स्वागत को आतुर
स्नेही सागर
परिवर्तन शाश्वत है
परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
परिवर्तन ना होने पर जड़ता का
अनुभव होने लगता है।
भोर सुहानी
भोर सुहानी सुरमयी,पीत वर्ण श्रृंगार
हल्दी के थापे लगे ,फूलों खिली बहार
कुछ दीवारें
कुछ दीवारें
जब उठती हैं
हाथ जोड़ हम सबको करते सादर प्रणाम
सिखाता सभी का करना ये आदर प्रणाम
हाथ जोड़ हम सबको करते सादर प्रणाम
होली गीतों की भूली बिसरी परम्परा
होली का पर्व अपने साथ
ऐसा उल्लास और उमंग ले कर
आता है जिसमे हर इन्सान आकंठ डूब
जाता है | ये फाल्गुन मास में आता है |
फाल्गुन मास में बसंत ऋतुअपने चरम पर होतीहै |
आदरणीया 'शुभा' मेहता जी
टीपें
अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
एकलव्य
सभी छायाचित्र : साभार गूगल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों के स्वतंत्र विचारों का ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग स्वागत करता है। आपके विचार अनमोल हैं। धन्यवाद