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सोमवार, 10 दिसंबर 2018

६९.......दूसरे की कहानी को अपना बताने में !

 हज़रतगंज में ट्रैफिक आम बात है किन्तु आज कुछ ज्यादा ही लगती है ! सोचता हुआ कलुआ विधानसभा की ओर अपनी ही धुन में चला जा रहा था। एकाएक कलुआ कुछ देखकर ठिठक-सा गया। ई का ! कक्का मुकुटधारी बने जीपवाले  रथ पर सवार ,माथे पर विजयश्री ,हाथों में विजय पताका जिसपर लिखा था ! लघुकथा और कविता प्रतियोगिता २०१८ का विजयी ! अब ई का है ? कलुआ सोचता हुआ अपनी क्लीनसेव दाढ़ी खुजाता है और किसी तरह भीड़ में धक्का-मुक्की करता हुआ रथ के समीप पहुँच ही जाता है। कलुआ को देखते ही कक्का के श्रीमुख से दो शब्द निकलते हैं। अरे ! कलुआ 
कलुआ - का कक्का ! ई का नौटंकी फान रक्खे हो। तुमका और कोई काम नाही है का ! तनिक सिर उठाकर ताको ! पूरा हज़रतगंज चौराहा तुम्हारी इस नौटंकी से त्राहिमाम ! त्राहिमाम कर रहा है। का ई जीपवाला टुटपुँजिया रथ मैदान में ना घुमा सकत हो ! सबके कानों में चरस बोई के मानोगे ! 
कक्का - का रे कलुआ ! तहुँ जब देखो तब बकर-बकर करते रहते हो ! का तुम हमरी जीत से खुश नाही ! अरे मैंने राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता जीती है और हाँ एक राज की बात कहें -कक्का अपना मुँह कलुआ के कान में घुसेड़ते हुए - उ याद है अखबार वाली कहानी ! कउन उ ! बेढब ज्योतिषी वाली। ...  कलुआ याद करता हुआ। कक्का - हाँ ! उहे ! उसी कहानी को मैंने थोड़ा सा मोड़ दिया और लघुकथा बनाकर प्रतियोगिता में भेज दिया। निर्णायक मंडल को मेरी कहानी में नयापन लगा और उन्होंने मुझे इस प्रतियोगिता का विजेता घोषित कर दिया। अब जीत की खुशी के लिए जुलूस-वुलूस तो आम बात है हमरे देश में। इहाँ मुद्दा ये है कि मेरी जीत का डंका तो बजना ही चाहिए क्यूँ ! सही कहा ना !
कलुआ - हाँ ! सो तो है ! "जितने का मुर्गी नाही ,उतने की नोचाई'' भई वाह !  मेहनत तो आपने की ही है वो अलग बात है दूसरे की कहानी को अपना बताने में ! अउर बाकी सब ठीक है !
 'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  

    चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........


सफ़ैद झूट 


 दाढ़ी है सन सफ़ैद औ मोछा सफ़ैद है,

 लो चाँद ईद का निकला, रचनाकार _श्रीमती राजेश कुमारी राज, संगीत_ बिमला भ...

 कुछ और नया होना चाहिये
सुगन्धित हवाओं का बहना
फूलों का गहना
ओस की बूंदों को गूंथना

कोहरे को छू कर देखना

तमाम उम्र काम न आई दुआ उसकी ... !
ड़फड़ाते रहे ख्वाब उड़ान भरने को
इक झौंका हवा का करीब नहीं आया !

   आहत उर की पीड़ा कविता बन गयी है

 आहत उर की पीड़ा कविता बन गयी है
मानव की परवशता कविता बन गयी है ||

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                                                                                       सभी छायाचित्र : साभार  गूगल 

 
    
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1 टिप्पणी:

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