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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

७१............... हमार कौन सी भैसिया मरी जा रही है।

अरे ओ कक्का ! बार-बार यूँ अन्नदाता पर लेख और कविताएं लिखना बंद करो ! 
क्यूँ रे कलुआ तेरे पेट में काहे आग लग रही है अरे लैटेस्ट सेलेबस रचनाओं का तो यही चल रहा है। रामपीठ ,श्यामपीठ अउर जोन-तोन पीठ साहित्य पुरस्कार इन्हीं विषयों पर लिखने वालों को तो मिल रहे हैं इतना मज़ेदार टॉपिक अउर कउन हो सकत है। ज़मीन पर कभी पैर न रखन वाले साहित्यकार तो आज लासा के टुटपुँजिये सैटेलाईट की सहायता से कीचड़ भरे खेतों में उतर-उतरकर साहित्य में जो गर्दा मचाय पड़े हैं उ तुमका नाही दिखत ! अउर जब हम उनके दुख-दर्द बांटने चलत हैं तो तुम फ़जीहत मचाय पड़े हो। 
हाँ-हाँ कक्का तुमहो धूल चाटो ! हमार कौन सी भैसिया मरी जा रही है। बाकी सब ठीक बा !
 'लोकतंत्र' संवाद मंच 
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।  

  चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........


 जनम की ख़ातिर नहीं उचित है, भारत का माहौल अभी,
कुछ सदियों तक रुके रहो, जनम पे हो लाहौल अभी .

 जोइ बिटप परपंथि हुँत होत उदारू चेत | 
साख बियोजित होइ सो उपरे मूर समेत || २ || 


 कुछ क़िस्से उड़ते बादल के,
कुछ क़िस्से आधे पागल के I



 हाँ मगर ये है मुझे ख़्वाब सुहाना आया

 एल्बम के पन्नों में कहीं, 
दबी छुपी सी है वो 
हंसी,

 सफल दुआ जीवन की कोई -
स्नेह की शीतल पुरवाई है ;

 कूदना तैयार हो जो सौ प्रतीशत
भूल जाना की नया अवसर मिलेगा

 य बजरंगबली!
आपकी जाति पर खलबली!!
 मुस्कान में बदलो !!!
  र्द को गीत में बदलो,
व्यथा को तान में बदलो !
जमाना साथ ना रोएगा

खोल न लब, आज़ाद नहीं तू

 फ़ैज़ की नज़्म – ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’, इमरजेंसी का ‘अनुशासन पर्व’, जॉर्ज ओर्वेल के उपन्यास – ‘नाईन्टीन एटी फ़ोर’ का अधिनायक – ‘बिग ब्रदर’, और साहिर का नग्मा – ‘हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काटों का हार मिला’, ये सब एक साथ याद आ गए तो कुछ पंक्तियाँ मेरे दिल में उतरीं, जिन्हें अब मैं आपके साथ साझा कर रहा हूँ -

 



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