बड़ा दिन हो गया ! चलें तनिक कक्का जी से मिल आए, मन में यह स्नेह भरा विचार लिए हमारे कलुआ का कक्का जी के निवास स्थान पर अचानक ही धावा ! का हो कक्का ! घर में हैं का ? जवाब में कोई प्रतिउत्तर नहीं। कलुआ भी मनमौजी ! धपाक से कक्का जी का किवाड़ खोलकर जा पहुँचा कक्का जी के समीप। कक्का कलुआ को देखते ही सकपका गए और लैपटॉप का टोपी धड़ाक से बंद कर दिया।
कलुआ - अरे ! कक्का मुझे देखकर तुम इतना उड़नखटोला क्यूँ हो गए ! का बात है ? कउनो विशेष !
कक्का ( माथे से पसीना पौंछते हुए ) - अरे ! नहीं कउनो बात नाही ! हम तो बस उ थोबड़े की किताब के दर्शन करने में जुटे थे ( कलुआ से कुछ छिपाते हुए कहते हैं ) ! परन्तु कक्का जी के माथे की सिकन कुछ और ही बतला रही थी सो कक्का जी ज्यादा देर तक अपना दुःख दबा न सके और फफक-फफककर रोने लगे। कलुआ ने कक्का जी को शांत कराते हुए उनके रोने का कारण पूँछने लगा।
कक्का- अउर का कही कलुआ ! बीते बरस जब उ परदेसी महोदय राष्ट्रपति के चुनावी अखाड़ा में जीते रहे तो सोचा हमरो दिन फिरने वाले हैं। एकाध अंतरष्ट्रीय कवि संगोष्ठी में तो हमका भी परदेस जाने का बीजा मिल ही जाई !
कलुआ ( पिछले दिनों को याद करता हुआ ) - अरे हाँ ! उ तो हमरो याद है। तुमने तो रामप्रसाद चाट वाले की पूरी दुकान ही बुक कर रक्खी थी ! बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना ! अउर तो अउर हमने तो आप से कहा भी था कि अपने लड़के चुनुआ के बर्थडे वाले दिन भी आपने इतना धूमधड़ाका नहीं मचाया होगा जितना उ दूसरे देश के मनई खातिर चारबाग पर चरस बोई रहे हो जबकि उसे जानते भी नहीं। उस समय उ तुम्हरे रिश्तेदार लगते रहे तुमका ! अब का हुईगवा ?
कक्का ( शर्माते हुए ) - का बताईं कलुआ ! कुलहि गुणगोबर हुई गवा ! उ परदेसी मनई हमका कहीं का नहीं छोड़ा !
कलुआ ( उत्सुकतापूर्वक ) - उ कैसे ? इम्मा ओकर कउन टाँग ? प्लीज कक्का एक्सप्लेन इट ! अंग्रेजी में भन्नाते हुए कलुआ ने कक्का की ओर गरमागरम पैने प्रश्न दागता नजर आया।
कक्का ( एक्सप्लेन करते हुए ) - अरे ! उ मनई ने तो सारा खेला ही बिगाड़ दिस ! हम भारतीयों के विदेश में प्रवेश करने पर कड़े कानून लाने की फिराक़ में है। अउर तो अउर हमरे देश के होनहार,ईमानदार अभियंताओं को मौक़ापरस्त घोषित कर उन्हें भी अपने देश से निकलवाने की जुगाड़ में है।
कलुआ ( अपना सिर खुजाते हुए ) - तबही हम सोची कि परदेस में काम करन वाले सभई टॉपरेटेड अभियंता कवि काहे बनते जा रहे हैं ! चलो एक बात तो तय हो रक्खा कक्का ! आने वाले दिनों में हमें विरह,वीर-रस ,व्यंग्य ,श्रृंगाररस के साथ-साथ ! रोबोटिक्स-रस , इलेक्ट्रॉनिक्स-रस ,कम्प्यूटर-रस , मंगलयान-रस ,शुक्र-रस ,शनि-रस अउर तो अउर नासा-रस पर भी एडवांस रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी ! और वैसे भी आज-कल हमरे जमींदार अउर उ नासपीटे खजांची में ठेलमठेल तो मचा ही है ! अउर साहित्य अपने चरम पर ! अउर का ! बाकी सब ठीक है।
- ई न सुधरी कलुआ की कलम से
'लोकतंत्र' संवाद मंच
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।
चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........
**फिज़ूल ग़ज़ल**
आइना झूठ सही, मन तो गवाही देगा
दिल पे रख हाथ जरा, सच ही सुनाई देगा।
आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से
अपराधी हैं यह लोग
सामान्य लोगों को डराने वाले इन अपराधियों को
माकूल सज़ा मिलनी चाहिए
रूठना (क्षणिका)
खोइँछा से निकाल
नईहर छोड़ आई।
स्त्री और स्वतंत्रता
अनिश्चितता
असुरक्षा
अस्थिरता का
दौर था कभी
तत्कालीन परिस्थितियोंवश
रूमानियत
था दर्द की इन्तहा में डूबा ये दिल ,
चाहत का मरहम लगाया आपने !
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आख़िर लौट गए वह लोग अयोध्या से
अपराधी हैं यह लोग
सामान्य लोगों को डराने वाले इन अपराधियों को
माकूल सज़ा मिलनी चाहिए
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'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
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होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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'एकलव्य'
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