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सोमवार, 19 नवंबर 2018

६७..........''बैरी ख़टमल" ! क्यों कैसी रही !

का रे कलुआ ! इ का सुन रहा हूँ ! तूने कोई प्रतियोगिता आयोजित कराई है ! अउर तो अउर कउनो विशेष टॉपिक पर ! औरो कछु इनाम-सिनाम भी रखा है जीतने वालों के सिर पर। इ सब का माजरा है। अरे कक्का ! काहे इतना बिलबिला रहे हो ! मैंने कौन सा अपराध कर दिया ? इ तो परम्परा यहीं ब्लॉग जगत वालों ने स्टार्ट किया था। स्टार्ट-अप रचना लिखो ! दिए गए टॉपिक पर तब आपको नहीं दिखा औरो जब हमने टॉपिक देकर रचना लिखवाना प्रारम्भ किया तो आपकी आँखें निकली जा रही हैं। अरे ! इसका दूसरा पक्ष तो आपको नजर नहीं आता। तथाकथित बड़े-बड़े धुरंधर साहित्यकार( स्वयं मैं ) भी मेरे इस प्रतियोगिता का हिस्सा बने हैं अउर तो अउर कुछ अंग्रेजी साहित्यकार भी हिंदी में लिखने लगे हैं। अरे कक्का ! मेरी इस प्रतियोगता ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान और यही नही इंग्लैंड के निवासियों को जो कभी भारत में पैदा हुए थे को अपनी सोंधी माटी की याद दिला रहा है ! सारा कारपोरेट जगत मेरे इस योजना और अक्लमंदी की मिसालें दे रहा है। यही नहीं मेरी साईट तो कई कंपनियों का ब्रांड एम्बेस्डर तक बन बैठा है। कल छुटकू पानमसाले वाले ने मुझे पैसों का एक बड़ा ऑफर दिया और परसों हरिया ख़च्चर वाले ने अपने खच्चरों का प्रचार करने हेतु मुझे हायर किया। अबे ! ये सब तो ठीक है परन्तु तूने जो साहित्य का कबाड़ा निकाल दिया वो ! उसका क्या ? अरे कक्का ! तहुँ बड़ा सेंटी हो जाते हो कभी-कभी ! अरे इसमें मेरा क्या क़सूर ! हउ तो फेसबुकवा वाले ऑडियंस से पूँछो ! वही इस प्रतियोगिता के संरक्षक बने बैठे हैं ! उसमें हमरा का दोष ! दोष कुल ब्लॉग जुगतवा वालों का है जिन्होंने ये ऑनडिमांडिंग रचना लिखवाने का दस्तूर चलवाया औरो उ भी अपना-अपना टॉपिक देकर ! 
अच्छा ! तू ये सब छोड़ ! मुझे यह बता तेरी इस प्रतिस्पर्धा का टॉपिक का है। अरे कक्का तुमहो बड़के वाले बौड़म हो ! अरे इसमें कौन सा कमाल है। 
कल रात मोहे नींद नहीं आ रही थी रातभर ठीक से सो न सका। सुबह उठकर जब मैंने खटिया को पीटना शुरु किया तब पता चला कि मेरी खटिया में खटमलों का बसेरा हो गया है। फिर क्या ! मैंने झटाक से टॉपिक डिसाइड कर लिया। ''बैरी ख़टमल" ! क्यों कैसी रही
कलुआ ! दिखने में तो तू बड़ा भोला है पर है बड़ा 'सरपट' ! चल अच्छा है !
 तेरा घर भरता रहे उनकी दुआ से और मेरा क्या है !
गलतियाँ हुईं शब्दों में लगी मात्राओं में,यही तो सच्चे साहित्य का फलसफ़ा है। गुस्ताख़ी माफ़ !

( कहते हैं एक साहित्यकार और आम जनमानस में कुछ बातें उन दोनों को एक-दूसरे से अलग बनाती हैं। एक साहित्यकार जब किसी रचना का सृजन करता है तो उसका आगा-पीछा सोच लेता है जैसे कि उसकी रचना के दूरगामी परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि एक रचनाकार की रचना का प्रभाव इस समाज पर क्या-क्या हो सकता है इन सबकी पूरी नैतिक ज़िम्मेदारी उक्त रचनाकार की होती है। )    

                                                                                - भवदीय कलुआ
''कहते हैं अफ़ीम की खेती करना ग़ुनाह नहीं क्योंकि इस अमृत का उपयोग औषधियों में एक आवश्यक अवयव के रूप में किया जाता रहा है परन्तु यह जहर तब बनता है जब इसकी खेती को व्यवसाय का रूप दिया जाता है।''

हमारे आज के अतिथि रचनाकार 
आदरणीय 'गोपेश' जसवाल जी 

उनकी एक रचना ... 


‘हेलेन ऑफ़ ट्रॉय’ की 
रोमांचक और दुखद गाथा, 
हम सबने बचपन में पढ़ी होगी 
लेकिन आज से 50-60 साल पहले हेलेन ऑफ़ 
बॉलीवुड की गाथा हम सब भारतीयों के दिलो-दिमाग पर छाई रहती थी. 
उसी हेलेन का एक रोमांचक किस्सा हमारे घर-परिवार में अक्सर याद किया जाता है.

 'लोकतंत्र' संवाद मंच 

अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के इस कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत करता है।


    चलते हैं इस सप्ताह की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं की ओर ........

  "बुजुर्ग महिला इसलिए छठ करती 
होगी कि वह सूर्य से गर्भवती हो जाये... ? सनकी को 
सवालों से घेर लेती... लेकिन... समय के साथ मैं बदल गई हूँ..."

 हमने गम नहीं देखा 
मने बहुत गम खाया है 
हर  बात पर पलटवार न करके 
मन को समझाया है |
                                             
 आजकल खामोश ‘मोचीराम’ ‘धूमिल’ का हुआ 
बोलता था तांत की तनकार में हरदम खरा

 जोग चरन दलीत भया बैठा सीस अजोग |
झूठे निजोग करत जो सांचे करत बिजोग || १ ||

 बुझ गए आस के दीपक
खंडहर हुआ उम्मीद का महल


 बरसों से जो खड़ा हुआ था 
बूढ़ा हुआ अशोक 

सूखा रही
अब धूप,
विरह की ।
निगोड़ी रात
अलमस्त!सुखी!

 इश्क़ आसान है या कठिन है बहुत
इल्म हो जाएगा थोड़ी हिम्मत करें

 बाल दिवस   मन करता है
  चलो आज मैं

 कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

 आये  अतिथि आंगन मेरे ,
 महक  उठे   घर - उपवन मेरे !!

 बीत जाए ज़िंदगी का,
ना कहीं मधुमास यूँ ही !!!
तुम रहो ना, पास यूँ ही ।।

  बरसेंगे काले बादल जो ठहर गए
हवा से कह दो अपने नाटक बंद करो

नदी तुम माँ क्यों हो...?
सभ्यता की वाहक क्यों हो...?
आज ज़ार-ज़ार रोती क्यों हो...?   
बात पुराने ज़माने की है 


उद्घोषणा 
 'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत 
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी 
व्यक्ति यदि  हमारे विचारों से निजी तौर पर 
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए। 
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु 
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
 है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है । 
धन्यवाद।

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सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
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                                                             सभी छायाचित्र : साभार  गूगल एवं  मेरी स्मृति के चलचित्रों से 

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